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________________ 15. उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ । भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ।। उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतराय - मोहरओ भूदो मेवादा जाद परं भूदाणं [( उवओग) - (विसुद्ध ) 1/1 fal (ज) 1 / 1 सवि [(विगद) + (आवरण) + (अंतरायमोहरओ)] [(विगद) भूकृ अनि (आवरण) - (अंतराय) - ( मोहरअ ) 1 / 1 ] (भूद) भूक 1/1 अनि [(स) + (एव) + (आदा ) ] सयं (अ)= स्वयं एव (अ) = ही आदा (आद) 1/1 (जा) व 3/1 सक ( पर) 2 / 1 वि [(णेय) विधिक अनि (भूद) 6/2] Jain Education International उपयोग से शुद्ध For Personal & Private Use Only जो आवरण, अन्तराय, मोहरूपी रज नष्ट कर दी गई हुआ स्वयं ही अन्वय- जो आदा सयं एव उवओगविसुद्धो भूदो आवरण अंतराय मोहरओ विगद णेयभूदाणं परं जादि । अर्थ- जो आत्मा स्वयं ही उपयोग से शुद्ध हुआ ( है ) ( जिसके द्वारा ) आवरण (ज्ञानावरण, दर्शनावरण), अंतराय और मोहरूपी रज (धूल) नष्ट कर दी गई (है) (वह) (आत्मा) (स्वयं ही) ज्ञेय पदार्थों के पार (अंत) को प्राप्त कर लेता है। प्रवचनसार (खण्ड- 1 1) आत्मा प्राप्त कर लेता है पार को ज्ञेय पदार्थों के (27) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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