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________________ 14. सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति। सुविदिदपयत्थसुत्तो [(सु) अ-(विदिद) भूकृ अनि पूरी तरह से (पयत्थ)-(सुत्त) 1/1] जान लिया गया पदार्थ और आगम संजमतवसंजुदो [(संजम)-(तव)- संयम और तप । (संजुद) भूकृ 1/1 अनि] . से संयुक्त विगदरागो [(विगद) भूक अनि- आसक्ति-रहित (राग) 1/1] समणो (समण) 1/1 श्रमण समसुहदुक्खो . [(सम) वि-(सुह)- समान सुख दुःख (दुक्ख)1/1] भणिदो (भण-भणिद) भूकृ 1/1 कहा गया सुद्धोवओगो त्ति [(सुद्ध)+ (उवओगो)+(इति)] [(सुद्ध) वि-(उवओग) 1/1] शुद्ध उपयोग इति (अ) = समाप्तिसूचक अन्वय- सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो समसुहदुक्खो सुद्धोवओगो त्ति समणो भणिदो। - अर्थ-(जिसके द्वारा) पदार्थ और आगम पूरी तरह से जान लिया गया (है), (जो) संयम और तप से संयुक्त (है), (जो) आसक्ति-रहित (है), (जिसके लिए) सुख-दुःख समान (है), (जिसका) उपयोग शुद्ध है- (वह) श्रमण कहा गया (है)। (26) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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