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________________ समयः सातंत्ररीत का कर तो घर चकास्की वस्त ऐसा छोटा थी, और न 'सोऽनन्तसमर्थः ' ऐसा पृथक क्षेत्र करके अनुवृत्तिके लिये सत्शब्दकी जरूरत थी. इससे साफ होता है कि कालको आचार्य महाराजने विकल्पसे द्रव्यतरीके माना है, और ऐसा होने पर 'कालय' ऐसा श्वेतांबरोंके कथनानुसार ही पाठ होना जरूरी है. दिगम्बरोंके हिसाबसे तो सारे लोक के आकाश में कालाकी विद्यमानता है. इससे उनके मत से क्षे जैसा 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने यह सूत्र श्रीउमास्वातिवाचकजीने किया है, उसी तरहसे इस कालद्रव्यके लिये भी अवगाह और प्रदेशमान समग्रलोकमें दिखाना जरूरी था, याने ' लोके तदाकाशमिताः (बा) लोकमिता कालाणवः ' ऐसा या अन्यकिसी तरहसे कहने की जरूरत थी. लेकिन न तो सूत्रकारमहाराज स्वतंत्र कालको द्रव्य मानते हैं, अथवा न तो लोकाकासमें व्याप्ति मानते हैं, और न समग्रलोकाकाश के प्रदेश जितने है इतने कालके अणु मानते हैं.. इससे साफ होता है कि न तो सूत्रकार दिगवर आम्नायके थे, और न उन्होने दिगम्बरकी मान्यता सच्ची मानी है. यह सूत्र कालमेत्येके किसी भी तरहसे माने, परंतु यह सूत्र पूर्णतः श्वेताम्बराकी मान्यता काही है, इससे साफ होता है कि इसके आचार्य श्रकामारोंकी मान्यता वाले थे और ग्रह तथार्थमंत्र भी उन वेताम्बरोंकाही है.. Jain Education International For Personal & Private Use Only मानना होता में · www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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