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________________ ( १३९ ) इस स्थान पर श्वेताम्बर लोग 'बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ' ऐसा पाठ मानते हैं, इसका अर्थ यह हैं कि पुद्गलोंका परस्पर बंध होने पर समगुणसे भी समगुणका पलटा हो जाता है. याने दशगुण कृष्णपुद्गल के साथ दशगुणश्वेतका बंध होवे या दशगुणरक्त के साथ दशगुणसफेदपुद्गलका बंध होवे तो क्रमसे कापोत और गुलाबी परिणाम हो जाता है. यह बात प्रत्यक्ष से भी गम्य है, तो फिर ऐसी बातको दिग म्बरोंने किस अकलमन्दीसे पलटा दी है, न्यूनगुणकी बाबत में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंमेंसे एकने भी विधान नहीं कहा इसका सबब यह है कि दूसरा जो कमगुण होता है तो वह वो बन्ध पानेवाला दूसरा स्कन्ध आपोआप ज्यादहगुणवाला है. और अधिकगुणवालेका परिणाम हो जाय यह तो सूत्र में साफ कहा ही है. ( ३६ ) सूत्र ३९ में दिगम्बर लोग 'काल' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वताम्बर लोग 'कालश्चेत्येके' ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कथन ऐसा है कि यदि कालद्रव्य स्वाभाविक ही आचार्य श्रीको मान्य होता तो 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस स्थान में ही कह देते, आखिर में कालके उपकारका ' वर्त्तना परिणाम: ० ' इत्यादि सूत्र कहा वहां पर भी कहते. और दूसरा यह भी है कि यदि इधर एकीयमत से कालको द्रव्यनहीं बताना होता और दिगम्बरोंकी मन्तव्यतानुसार ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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