SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग होती तो फिर आध्यात्मिक जीवन तो बड़ा गम्भीर एवं दुरूह है, फिर इसमें अनास्था और संशय होने पर आत्म-कल्याण किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? श्री आचारांगसूत्र में कहा भी है "वितिगिच्छासमावन्नणं अप्पाणेणं, नो लहइ समाहि।" अर्थात्-शंकाशील व्यक्ति को कभी समाधि नहीं मिलती। गाथा से स्पष्ट है कि शंकाशील हृदय वाले को कभी समभाव प्राप्त नहीं होता और समभाव के अभाव में जबकि संदेह की तरंगें सदा मानस को झकझोरती रहती हैं, धर्म-क्रियाओं में एकाग्रता कैसे आ सकती है ? और उस स्थिति में कौनसी धर्म-क्रिया भली-भाँति की जा सकती है ? कोई भी नहीं । जहाँ सन्देह होता है, वहाँ कोई भी कार्य सुचारु रूप से नहीं किया जा सकता और जब कार्य ही सही रूप से नहीं होगा तो वह सही फल कैसे प्रदान करेगा? आत्म-विश्वास या अपनी आत्म-शक्ति पर दृढ़ आस्था हो तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है । एक छोटा-सा उदाहरण हैश्रद्धारूपी सुदृढ़ दुर्ग यूरोप में स्टिवन नाम का एक बड़ा धार्मिक, सत्यवादी एवं आत्म-शक्ति पर दृढ़ आस्था रखने वाला व्यक्ति रहता था। अनेक नास्तिक पुरुष उसकी धर्म-भावना से ईर्ष्या करते थे तथा उसके शत्रु बन गये थे। यह देखकर एक बार स्टिवन के मित्रों ने कहा-“बन्धु ! अनेक धर्मद्रोही व्यक्ति तुमसे शत्रुता रखते हैं, अतः कभी उन लोगों ने अचानक तुम पर आक्रमण कर दिया तो फिर क्या होगा ?" स्टिवन ने निश्चिन्ततापूर्वक उत्तर दिया- "इसके लिए चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ? मैं मेरे लौहदुर्ग में प्रविष्ट हो जाऊँगा । वहाँ मेरा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।" स्टिवन की इस बात को उसके मित्र तो सही ढंग से नहीं समझ पाए किन्तु उसके विरोधियों को इन गर्व भरे शब्दों का पता चल गया और उन्होंने इसे स्टिवन का दर्प समझकर उसे चूर्ण करने का निश्चय कर लिया। संयोगवश ऐसा अवसर भी आ गया। स्टिवन एक दिन किसी कार्यवशात् शान्तिपूर्वक किसी मार्ग से गुजर रहा था कि उसके नास्तिक शत्रुओं ने उसे चारों ओर से घेर लिया और बोले-“बताओ ! अब तुम क्या करोगे ? कहाँ जाओगे, और कौनसा वह दुर्ग है जिसमें प्रविष्ट होकर सुरक्षित रहोगे ?" . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy