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________________ ५ अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पाप - प्रमोचिनी , धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! कल हमने संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों में से उन्नीसवाँ भेद 'अज्ञान परिषह' समाप्त किया था । आज बीसवें भेद ' दर्शन परिषह' को लेना है । 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' के दूसरे अध्याय में बाईस परिषहों का स्पष्टीकरण किया है। और 'दर्शन परिषह' अन्तिम परिषह है । ****** दर्शन का एक अर्थ होता है देखना और दूसरा है श्रद्धा करना । आध्यात्मिक दृष्टि से श्रद्धा का बड़ा भारी महत्त्व है । अगर मन में श्रद्धा न हो तो एक भी धर्म-क्रिया अपना फल प्रदान नहीं कर सकती । जिस प्रकार चासनी बिगड़ जाने से सभी पकवान बिगड़ जाते हैं, उसी प्रकार संदेह, शंका या अविश्वास के कारण श्रद्धा के बिगड़ जाने पर धर्म - कार्य खोखले रह जाते हैं या बगड़ जाते हैं । Jain Education International आपके व्यावहारिक जीवन में विश्वास के बिना एक कदम भी आप आगे नहीं बढ़ पाते । कोई आपसे पाँच रुपये उधार माँगे तो आप उस पर विश्वास हुए बिना नहीं देते । किसान विश्वास के आधार पर ही हजारों टन मिट्टी में अनाज बोता है कि यह कई गुना होकर फसल के रूप में आएगा, बहनें विश्वास होने पर ही दूध में जावन देती हैं कि यह दही अवश्य बन जाएगा । पर अनाज उगने से पूर्व अविश्वास कारण किसान अगर बीज को उखाड़कर देखेगा तो फिर वह फसल हासिल नहीं कर सकेगा और बहनें दही जमने से पहले ही अविश्वास के कारण दूध को बार-बार हिला-डुलाकर देखेंगी तो वह बिगड़ जाएगा । तो सांसारिक जीवन में भी जब अविश्वास के कारण सफलता हासिल नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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