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________________ अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी ५७ स्टिवन ने अपनी शान्ति और गम्भीरता को पूर्णरूप से कायम रखते हुए निर्भयतापूर्वक उत्तर दिया “भाइयो ! मेरा दुर्ग कहीं बाहर नहीं है। मेरे हृदय के अन्दर ही है, जिसका नाम है अपने धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा । जब तक मैं इस 'आत्म-श्रद्धा' रूपी दुर्ग में स्थित हूँ, तब तक आप लोग मेरा रंचमात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकते । अनिष्ट केवल मेरे शरीर का हो सकता है, पर इसकी मुझे परवाह नहीं है । मैं तो अपने श्रद्धा रूपी दुर्ग की रक्षा करना चाहता हूँ और वह कर लूंगा चाहे आप सब मिलकर मेरे इस अनित्य शरीर को नष्ट भी कर दें। आखिर यह तो एक दिन जाना ही है। बाद में न जाकर आज ही सही।" स्टिवन के विरोधी उसकी इस बात से चमत्कृत हो गये और बिना कुछ कहे अपने-अपने गंतव्य की ओर चल दिये । __ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि जिस व्यक्ति की धर्म पर दृढ़ श्रद्धा या विश्वास होता है उसे संसार की कोई भी शक्ति पराजित नहीं कर सकती। इस संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जो आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप अथवा बन्धन-मुक्ति और परलोक के संशय में ही पड़े रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कभी किसी की सत्संगति या उपदेशों के प्रभाव में आकर कुछ काल तक धर्माचरण करते भी हैं, किन्तु उनका तुरन्त ही कुछ विशिष्ट फल प्राप्त न होने पर खेद करने लगते हैं कि मैंने व्यर्थ ही इन क्रियाओं में समय गँवाया। ऐसा वे श्रद्धा के मजबूत न होने के कारण ही कहते हैं । इसी विषय को लेकर भगवान ने कहा है--- नत्थि नूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवस्सियो । अदुवा वंचिओमि ति, इइ भिक्खू न चितए ॥ -श्री उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २, गा० ४४ गाथा में कहा गया है-साधु कभी ऐसा चिन्तन न करे कि-'नत्थि नणं परेलोए' अर्थात् निश्चय ही परलोक तो है नहीं और न ही तपस्वी को किसी प्रकार की 'इड्ढी' यानी ऋद्धि ही प्राप्त हो सकती है । अतः मैं छला गया हूँ। ऐसा जो साधक सोचता है, उसका इहलोक तो डाँवाडोल होकर बिगड़ता ही है, परलोक भी बिगड़ जाता है । श्रद्धा के अभाव में प्रथम तो वह साधना के सुमार्ग पर चल ही नहीं पाता और कदाचित् चल पड़ता है तो सन्देह और शंकाओं के तूफान से अपने आपको सम्हाल नहीं पाता तथा तिनकों के समान इधर से उधर उड़ता हुआ निरुद्देश्य भटकता रहता है और ऐसी स्थिति में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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