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________________ १६ धर्मो रक्षित रक्षितः वह अपने शरीर के सौन्दर्य को ढकने के लिये उस पर राख मलता है। किसी वृक्ष के नीचे रहकर भूख सहन करता है, भयंकर शीत और घनघोर वर्षा की परवाह न करता हुआ जब कड़ी धूप पड़ती है तो पंचाग्नि तप भी तपता है। इस प्रकार अनेकों घोर कष्ट सहते हुए अपने कोमल आसन का त्याग करके घास-फूस एवं कास आदि कष्टकर वस्तुओं पर आसन जमाकर तपस्या में मग्न होना चाहता है किन्तु आसन बदल लेने पर भी वह 'आस' को नहीं त्याग पाता तो उसे क्या लाभ हो सकता है ? ऐसे प्राणी न घर के रहते हैं और न घाट के । उनकी दशा अत्यन्त दयनीय बन जाती है । तो बन्धुओ ! श्लोक में बताया गया है कि धर्म के प्रभाव से दूसरा सुख लक्ष्मी के रूप में मनुष्य को मिलता है । पर अगर उसके द्वारा सच्चा सुख प्राप्त करना है तो उसे लालच एवं तृष्णा का परित्याग करके परोपकारादि करते हुए सन्तोष-रूपी धन को हासिल करना चाहिए। ३. यश-प्राप्ति धर्म के प्रभाव से मनुष्य को जो सात सुख इस संसार में प्राप्त होते हैं, उनमें से तीसरा सुख यश प्राप्त करना है । यश की प्राप्ति कर लेना भी सहज नहीं है । यह कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे धन देकर खरीद लिया जाय या किसी से छीन लिया जाय । यश की प्राप्ति व्यक्ति को तभी हो सकती है, जबकि वह अपने जीवन को ही औरों के लिये अर्पण कर दे तथा सर्वस्व से मुंह मोड़ ले। कीर्ति तो फिर भी मानव जल्दी प्राप्त कर लेता है पर यश प्राप्त करना उसके लिये टेढ़ी खीर है। आप सोचेंगे कि कीति और यश में क्या फर्क है ? दोनों ही तो समानार्थक हैं। पर ऐसी बात नहीं है । अगर बारीकी से देखा जाय तो इन दोनों में काफी अन्तर पाया जाता है । संस्कृत में कहा गया है "एकदिक्व्यापिनी कोतिः, सर्वदिकव्यापी यशः ।" अर्थात् कीर्ति एक दिशा में व्याप्त रहती है तथा यश सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाता है । कीर्ति तो किसी की महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश अथवा बंगाल में होती है, किन्तु यश प्रत्येक दिशा में व्याप्त हो जाता है। आज गाँधीजी की केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं वरन् विदेशों में भी प्रशंसा और सराहना की जाती है। वह उनका यश है जो प्रत्येक और समान है। आज लक्ष्मीपति तो बहुत होते हैं किन्तु यशस्वी विरले ही मिल सकते हैं । तारीफ की बात तो यह है कि धन के पीछे दौड़ने वाले कीर्ति का उपार्जन तो कर लेते हैं पर उससे मुंह मोड़ लेने वाले यश पाते हैं। सुकरात ने एक स्थान पर कहा है---- 'Fame is the perfume of heroic deeds.' कीति वीरोचित कार्यों की सुगन्ध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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