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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग सुकरात का कथन सत्य है कि वीरता एक बार तो मनुष्य को कीर्ति की प्राप्ति करा ही देती है और उस व्यक्ति के नाम का डंका बज जाता है। किन्तु कालान्तर के बाद कोई पुरुष श्रद्धा या भक्ति के साथ उसका नाम स्मरण नहीं करता। उदाहरण के लिये हम नेपोलियन बोनापार्ट को ले सकते हैं, जो कहता था-- शब्दकोष से असम्भव शब्द को निकाल देना चाहिए। वह अपने समय में जिधर गया अपनी वीरता से कीर्ति को गले लगाता रहा । किन्तु उसका अन्त कहाँ हुआ? एक साधारण कैदी के रूप में किसी छोटे से टापू में वह मरा । मुसोलिनी भी वीरता के मद में चूर होकर कहता था- "युद्ध विश्व की अनिवार्य आवश्यकता है।" अपने जीवन काल में उसने समस्त देशों को एक बार हिला दिया। पर अन्त में उसके गले में फाँसी का फन्दा पड़ा। यही हाल हिटलर का हुआ। उसने तो सारे विश्व को ही मानों चुनौती दी थी कि "मेरी अधीनता स्वीकार करो अन्यथा सबको समाप्त कर दूंगा।" वही वीर हिटलर कब और कैसे मरा इसका किसी को पता ही नहीं चला। ___इन उदाहरणों से मेरा तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपनी शक्ति और बहादुरी के बल पर एक बार कीर्ति का उपार्जन कर लेता है, किन्तु कुछ समय बाद ही कोई उसकी प्रशंसा करने वाला या श्रद्धापूर्वक स्मरण करने वाला नहीं होता। किन्तु यशस्वी पुरुष अपने जीवन काल में तो लोगों के लिये मार्ग-दर्शक एवं आदर्श-रूप होते ही हैं, मरने के पश्चात् भी उसी प्रकार भक्ति और श्रद्धा के पात्र बने रहते हैं तथा अपने गुणों के कारण पूज्यनीय बनते हैं। इस विषय में एक पाश्चात्य दार्शनिक 'हैजलिट' ने बड़ी मर्मस्पर्शी और यथार्थ बात कही है। वह इस प्रकार है "The temple of fame stands upon the grave, the flame upon its altars is kindled from the ashes of the dead." यानी कब्र पर यश का मन्दिर खड़ा होता है और मृतक की राख से उस पर चिराग जलता है। वस्तुतः समस्त सांसारिक वैभव तो काल पाकर क्षय हो जाता है, किन्तु यश रूपी धन अक्षय है । इसे काल कभी भी नष्ट नहीं कर सकता। प्राचीन काल से लेकर आज के युग तक में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा एवं गाँधीजी आदि जो अनेकानेक महापुरुष हुए हैं उनका यश उस समय भी वही था, आज भी वैसा ही है और भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा। इसका कारण यही है कि उन्होंने धन के बल पर या शारीरिक शक्ति के बल पर यश का उपार्जन नहीं किया। दूसरे शब्दों में यश-प्राप्ति की उन्होंने आकांक्षा ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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