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________________ १८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग सन्त इस तृष्णा को समाप्त करने की प्रेरणा देते हैं। उनका यही उपदेश होता है कि आपके पास थोड़ा या अधिक कितना भी धन हो, पर आपका मन सदा हाय-हाय न करता रहे । प्रत्येक आत्मोन्नति का इच्छुक व्यक्ति महाराज भरत के समान ऐश्वर्य और सुख के असख्य साधनों के बीच में रहते हुए भी उनमें आसक्ति न रखे । साथ ही प्राप्त धन के द्वारा दानादि देकर परोपकार करता हुआ उसका सदुपयोग करे। इस प्रकार सन्त-महापुरुष आपको धन का एकदम ही त्याग करने के लिये न कहकर उसमें आसक्ति न रखने की, औरों का गला काटकर आवश्यकता से अधिक इकट्ठा न करने की और आपके पास रहे हुए धन का दुरुपयोग न करने की प्रेरणा देते हैं। यद्यपि कर्मों की सम्पूर्ण रूप से निर्जरा करके सदा के लिये संसार-मुक्त होने के लिये तो आपको धन का सर्वथा त्याग करना ही होगा और उसकी तरफ झांकने की भावना भी न हो ऐसा प्रयत्न करना होगा। किन्तु जब तक आप साधना की उस स्थिति पर नहीं पहुँच सकते और सांसारिक कर्तव्यों से बंधे रहते हैं, तब तक कम से कम शुद्ध श्रावक-धर्म का तो आपको पालन करना ही चाहिए। और इसीलिये सम्पूर्ण रूप से न हो सके तो भी आंशिक रूप से व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। ऐसा होने पर ही आप स्वयं धर्म के प्रभाव से प्राप्त लक्ष्मी का सुख प्राप्त कर सकेंगे तथा अन्य अनेक जीवों को भी सुखी बना सकेंगे। धर्म-मार्ग पर चलने का अर्थ आपके लिये यही है कि आप लालसा, तृष्णा एवं आसक्ति का परित्याग करें और जो कुछ भी धन आपको मिले उसमें पूर्ण सन्तोषपूर्वक स्वयं उपयोग करते हुए अन्य अभावग्रस्तों में भी बाँटें। धन बुरा नहीं है पर इच्छा और आशाएं बुरी हैं । अगर व्यक्ति धन-सम्पत्ति का त्याग करके साधु बन जाय पर इच्छाओं का त्याग न कर सके तो उसकी समस्त साधना व्यर्थ है । कवि सुन्दरदास जी ने भी यही कहा हैगेह तज्यो पुनि नेह तज्यो, पुनि खेह लगाइके देह संवारी । मेघ सहै सिर सोत सहै तन, धूप समै जु पंचागिनि बारी ।। भूख सहै रहि रूख तरे पर, सुन्दरदास सहै दुख भारी। आसन छांडि के कांसन ऊपर, ___ आसन मारि पै 'आस' न मारी ॥ कवि ने बड़ी सुन्दर और मार्मिक बात कही है कि- "कोई व्यक्ति स्वर्ग और मोक्ष-प्राप्ति की लालसा के कारण धन, सम्पत्ति और घर को छोड़ देता है तथा परिवार के प्रति रहे हुए मोह का भी त्याग करके साधु बन जाता है । इतना ही नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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