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________________ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ६७ (४) कठोर वचन (५) अविचारपूर्ण वचन एवं (६) शान्त हुए कलह को पुनः भड़काने वाले वचन । अभिप्राय यही है कि इन छः प्रकार के वचनों में से किसी भी प्रकार के वचन कहने से कटुता बढ़ती है और चित्त के अशांत रहने से आत्म-साधना में बाधा आती है । इसीलिए भगवान ने साधु को कटुवचन सुनकर भी मौन रहने की आज्ञा दी है। शांत कैसे रहते हैं आप ? संत एकनाथ के समीप एक व्यक्ति आया और बोला-भगवन् ! आपका जीवन कितना सादा, सरल और निष्पाप है ? आप कभी क्रोध नहीं करते, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते और प्राय: मौन ही रहा करते हैं। ऐसा कैसे कर पाते हैं आप ?" एकनाथ जी ने व्यक्ति की बात सुनी, उस पर कुछ क्षण विचार किया और बोले- "भाई ! मैं तो जैसा हूँ सो हूँ पर तुम्हारे विषय में मुझे कुछ ज्ञान हुआ है, अगर तुम चाहो तो कह दूं ?" _भक्त संत की बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बोला-"महाराज ! अवश्य कहिये । भला आपकी बात मैं नहीं सुनूँगा ! संतों के प्रवचन, उपदेश और कथन से बढ़कर सुनने वाली और कौनसी बात हो सकती है ?" बड़ी उत्सुकतापूर्वक उस व्यक्ति ने पूछा। एकनाथ जी शांत स्वर से बोले-"मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि आज से सातवें दिन तुम मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।" संत की बात सुनते ही उस व्यक्ति पर मानों बिजली गिर पड़ी । पृथ्वी उसे अपने पैरों तले से खिसकती हुई प्रतीत हुई। आस-पास की सम्पूर्ण वस्तुएँ भी जैसे उसके चारों ओर तेजी से चक्कर काटती हुई प्रतीत हुई । कुछ देर वह पाला पड़ी हुई फसल के समान निर्जीव-सा बैठा रहा और उसके पश्चात् द्रुतगति से अपने घर की ओर भागा। एक-एक करके छः दिन व्यतीत हो गए और ठीक सातवें दिन संत एकनाथ जी उस व्यक्ति के घर जा पहुंचे । व्यक्ति घर पर ही था, उसे देखते ही उन्होंने पूछा "क्यों भाई कैसे हो?" ___वह व्यक्ति बोला- “महाराज ! बस मृत्यु की ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ। आज सातवाँ दिन है।" पर मैं यह पूछ रहा हूँ कि तुम्हारे ये छः दिन कैसे निकले ? इन दिनों में तुमने कितने पाप-कार्य और कितने पुण्य-कार्य किये ? तुम्हारे मन में कैसे विचार आए ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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