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________________ ६८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग वह व्यक्ति बड़ी शांति पूर्वक बोला "गुरुदेव ! अब मैं कैसे बताऊँ कि ये दिन कैसे निकले । फिर भी आपसे यही कहता हूँ कि इन दिनों में मैंने अपनी समझ में कोई भी पाप-कार्य नहीं किया। तनिक भी बेईमानी नहीं की, किसी को धोखा नहीं दिया, मन, वचन और कर्म से हिंसा से बचा, झूठ नहीं बोला और किसी से कटु-शब्द कहकर लड़ा नहीं। इतना ही नहीं मृत्यु को समीप पाकर मैं अधिक से अधिक मौन रहा और वह समय चिंतन-मनन और शुभ विचारों में गुजारता रहा।" संत एकनाथ जी उस व्यक्ति की बात सुनकर मुस्कराये और कहने लगे"भाई ! मैंने तुम्हारी मृत्यु की बात केवल इसीलिए तुमसे कही थी कि तुम, मौत को सामने पाकर किस प्रकार समय व्यतीत किया जाता है, यह समझ सको। उस दिन तुमने मेरे जीवन के लिए निष्पाप एवं सरल किस प्रकार बना यह पूछा था, उसका उत्तर मैं शब्दों में नहीं दे सकता था अतः तुम्हें स्वयं अनुभव करने के लिए मृत्यु के विषय में कहा था । अब तुम स्वयं समझ सकते हो कि मृत्यु को समाने पाकर व्यक्ति का जीवन कैसा बन जाता है । मैं तो प्रतिक्षण मृत्यु को अपने सामने खड़ी हुई देखता हूँ और इसी लिए अपने आपको अन्याय, अत्याचार, हिंसा, क्रोध, गाली-गलौज आदि से बचाकर रखता हूँ। साथ ही इन सबसे बचा हुआ समय मौन रहकर आत्म-साधना में लगाता हूँ। अगर मैं मौन न रहूँ और दूसरों की निन्दा, भर्त्सना, लड़ाई तथा कलह आदि में अपना समय बर्बाद करूँ तो फिर आत्म-चिन्तन एवं साधना किस प्रकार करूँ ? संत को तो अधिक से अधिक वाद-विवाद से बचना चाहिए तथा अपना समय मौन रहकर आत्मिक कार्यों में लगाना चाहिए, इसके बिना साधु अपने उद्देश्य में कदापि सफल नहीं हो सकता।" __ हमारे जैन शास्त्र तो मौन को सम्यक्त्व मानते हैं तथा उसे मुनित्व का अनिवार्य अंग कहते हैं। आचारांग सूत्र में कहा है "जं सम्मति पासहा, तं मोणंति पासहा । जं मोणंति पासहा, तं सम्मति पासहा । ण इमं सक्कं सिढिलेहि, अछिज्जमाणेहिं गुणासाएहि, वंकसमायारेहि, पमत्तेंहिं, गारमावसंतेहिं ।" अर्थात् -जो सम्यक्त्व है, वह मौन मुनित्व है और जो मौन है, वह सम्यक्त्व है। शिथिल, आर्द्र, विषयास्वादी, वक्रचारी, प्रमत्त और घर में रहने वाले मनुष्यों के द्वारा यह सम्यक्त्व एवं मौन शक्य नहीं है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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