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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग 'आक्रोश परिषह' को लेकर भी भगवान महावीर ने साधु के लिए आदेश दिया है सोच्चाभं फरसा भासा, दारुणा गामकण्टगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे । -श्री उत्तराध्ययन सूत्र, २-२५ दूसरों की अत्यन्त कठिन और कंटक के समान तीक्ष्ण चुभने वाली भाषा को सुनकर भी साधु मौन रहे और उन पर मन से भी क्रोध या द्वेष न करे । वस्तुतः वही सच्चा साधु है जो कटु शब्द सुनकर भी क्रोध न करे तथा मौनभाव से उन्हें सहन करे। मौन की महिमा मौन का जीवन में बड़ा भारी महत्व है। जो व्यक्ति अधिक समय तक मौन धारण किये रह सकता है वह प्रथम तो लड़ाई-झगड़े से बचता है, दूसरे अपने उस समय को आत्म-साधना में लगा सकता है । महात्मा कबीर ने कहा भी है वाद-विवादे विष घणां, बोले बहुत उपाध । मौन गहे सब की सहे, सुमिरे नाम अगाध ॥ कहते हैं वाद-विवाद करने से आपसी कलह बढ़ती है और बोलने वालों के दिलों में वैर रूपी विष बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो यह विष इतना व्याप्त हो जाता है कि जीवन पर्यन्त नहीं उतरता और इस प्रकार अनेक उपाधियों का यानी मुसीबत और परेशानियों का कारण बनता है । किन्तु इसके विपरीत कटुता के समक्ष मौन धारण कर लेने से झगड़ा वहीं शांत हो जाता है। इसका कारण यही है कि क्रोध-रूपी आग लगने पर मौन शीतल जल का काम करता हुआ तुरन्त उसे मिटा देता है और अगर प्रत्युत्तर में कटु शब्द कहे जायें तो वे आग के लिए और ईंधन का काम करते हैं अर्थात् उसे बढ़ा देते हैं। इसलिए कटु-वचनों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। श्री स्थानांग सूत्र में छ: प्रकार के वचनों का निषेध किया गया है । वे इस प्रकार बताये गये हैं "इमाई छ अवयणाई वदित्तए-अलियवयणे, हीलियवयणे, खिसितवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए।" छः प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए(१) असत्य वचन, (२) तिरस्कार युक्त वचन, (३) झिड़कते हुए वचन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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