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________________ 138 :: तत्त्वार्थसार होते हैं वहाँ उनकी रुक्षता कायम रहती है, परन्तु अधिकांश का परमाणु स्निग्ध हो तथा हीनांशवाला रुक्ष हो तो दोनों का पर्याय स्निग्ध रूप हो जाता है । इसी प्रकार जहाँ अधिकांश गुणवाला रुक्ष हो तथा हीनांशवाला स्निग्ध हो वहाँ बन्धोत्तर अवस्था केवल रुक्ष हो जाती है, यह इसका प्रकार । यह नियम सर्वत्र ही दिख पड़ता है। गीला गुड़, यदि उसमें धूल माटी आकर मिल जाए तो वह गुड़ ही रहता है। धूलमाटी का स्वाद दब जाता है, परन्तु गुड़ का स्वाद फिर भी कायम रहता है। क्योंकि, गुड़ की मधुरता तेज होती है। यह उदाहरण केवल इसलिए दिया गया है कि हीन शक्ति, प्रबल शक्ति द्वारा दब जाती है, परन्तु बन्ध का यह उदाहरण नहीं है। क्योंकि, बन्ध के कारण स्निग्ध- रुक्षता गुण हैं और यहाँ पर रस का प्रकरण है अर्थात् गुड़ के रस द्वारा धूलमाटी का रस दब या बदल जाता है, न कि उनकी स्निग्धता रुक्षता बदल जाने के लिए यह बात कही गयी है, इसलिए स्निग्धता या रुक्षता के द्वारा बन्धोत्तर पर्याय का एक स्पर्श हो जाने पर भी रसरूपादि गुण जुदे - जुदे रह सकते हैं। देखो, एक आम का फल अधपका होने के समय दो-दो रंग और रस धारण करता है। डाँठले की तरफ खट्टा और नीचे की तरफ मीठा होता है एवं एक तरफ पीला हो जाता है। दूसरी तरफ हरा बना रहता है । घट का पाकज रूप एक तरफ तो पीला हो जाता है और दूसरी तरफ काला भी बना रहता है, इसीलिए इन पर्यायों को एकांगी या प्रादेशिक पर्याय कहते हैं । यह हुई परमाणुओं के बन्धन की व्यवस्था । इसी प्रकार स्कन्धों के परस्पर मिलने पर जो बन्ध होता है उसकी कारण सामग्री का भी यथायोग्य विचार लेना चाहिए। बन्ध के भेद यणुकाद्याः किलानन्ताः पुद्गलानामनेकधा । सन्त्यचित्तमहास्कन्धपर्यन्ता बन्धपर्ययाः ॥ 76 ॥ अर्थ —यह बन्ध जब जघन्य से जघन्य, दो परमाणुओं का होता है तब उसे द्व्यणुक-स्कन्ध कहते हैं। इसी प्रकार सबसे अधिक परमाणुओं का जो स्कन्ध उत्पन्न होता है उसे महास्कन्ध कहते हैं । यह महास्कन्ध भी केवल पुद्गल परमाणुओं का ही जड़ पिंड है। इसमें जीव का सम्बन्ध नहीं मानना चाहिए। जीव का सम्बन्ध रहकर भी शरीर-स्कन्ध उत्पन्न होते हैं, परन्तु अजीवतत्त्व के प्रकरण में यहाँ जीव बन्ध कहने की आवश्यकता नहीं है। दूसरी यह भी बात है कि जीव में भी जो बन्ध होता है वह तभी तक होता है जब तक कि उसमें पुद्गल का सम्बन्ध रहता है, इसलिए बाँधने की असली योग्यता पुद्गल में ही है। इस प्रकार जघन्य स्कन्ध से उत्कृष्ट स्कन्ध पर्यन्त पुद्गल में अनेकों प्रकार के बन्ध पर्याय होते हैं। उन स्कन्ध पर्यायों के प्रदेश - तर - तमादि की अपेक्षा से बाईस भेद किये गये हैं- (1) संख्याताणु वर्गणा, (2) असंख्याताणुवर्गणा, (3) अनन्ताणुवर्गणा, (4) आहार वर्गणा, (5) अग्राह्य वर्गणा, (6) तैजस वर्गणा, (7) अग्राह्य वर्गणा, (8) भाषा वर्गणा, (9) अग्राह्य वर्गणा, (10) मनो वर्गणा, (11) अग्राह्य वर्गणा, (12) कार्मण वर्गणा (13) ध्रुव वर्गणा, (14) सांतरनिरन्तर वर्गणा, (15) शून्य वर्गणा, ( 16 ) प्रत्येक शरीर वर्गणा, ( 17 ) ध्रुवशून्य वर्गणा, (18) बादरनिगोद वर्गणा, (19) शून्य वर्गणा, (20) सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, (21) नभो वर्गणा और ( 22 ) महास्कन्ध वर्गणा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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