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________________ तृतीय अधिकार :: 137 कहलाते हैं। अभ्रक के जो पटल निकलते हैं वे प्रतर कहलाते हैं। एक-एक उदाहरण देकर छहों भेदों के स्वरूप लिखे हैं, परन्तु इनके सिवा और भी उदाहरण यथायोग्य हो सकते हैं। व्यवहार में ये छह तरह के भेद दिख पड़ते हैं, इसलिए छह भेद ग्रन्थकार ने दिये हैं। इनके अतिरिक्त जो भेद होंगे उनके नाम इन्हीं में से रखे जो सकते हैं। पुद्गल में बन्धन की योग्यता विसदृक्षाः सदृक्षा वा ये जघन्यगुणा नहि। प्रयान्ति स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धं ते परमाणवः॥73॥ संयुक्ता ये खलु स्वस्माद् द्वयाधिकगुणैर्गुणैः। बन्धः स्यात्परमाणूनां तैरेव परमाणुभिः॥74॥ अर्थ-'जघन्यगुण' शब्द का अर्थ जघन्यांश है। गुण शब्द के भाग तथा शक्ति ये दोनों अर्थ होते हैं। स्नेह एवं रूक्षता बन्ध का कारण है। स्नेहयुक्त परमाणुओं का भी बन्ध होता है, रूक्ष परमाणुओं का भी होता है और स्नेह-रूक्ष इन दोनों गुणवाले परमाणुओं का भी परस्पर में बन्ध होता है, परन्तु गुणों की मात्रा जिन परमाणुओं में सबसे जघन्य होगी उन परमाणुओं का उस समय बन्ध किसी के साथ भी नहीं होगा। जघन्य का प्रमाण यहाँ पर एकांश माना गया है। स्नेह रूक्षता के एकांश से अधिक अंश रहने पर भी सर्वत्र बन्ध नहीं होता और समान अंश रहने पर भी नहीं होता है। तो? दो अंश का अन्तर रहना चाहिए। दो अंश की हीनाधिकता वाले स्नेही या रूक्ष अथवा स्निग्धरूक्ष परमाणु परस्पर में इकट्ठे होने पर बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। दो अंश की अधिकता रहने का क्या कारण है? बन्धेऽधिकगुणो यः स्यात् सोऽन्यस्य परिणामकः। रेणोरधिकमाधुर्यो दृष्टः क्लिन्नगुडो यथा॥ 75॥ अर्थ-दो परमाणुओं की अवस्था जो प्रथम जुदी-जुदी रहती है वह बन्ध होने पर नष्ट हो जाती है और तीसरी नवीन अवस्था उत्पन्न होती है, इसी का नाम बन्ध है। जब तक पूर्व अवस्था कायम है तब तक दो का संयोग रहते हुए भी बन्ध नहीं होता। जबकि बन्ध में पूर्व की दोनों अवस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं तो तीसरी अवस्था जो उत्पन्न होगी वह कैसी होनी चाहिए? सुनिए, पूर्व दोनों अवस्थाओं में से किसी एक अवस्था का रूपान्तर हो जाता है और दूसरे की अवस्था उसी में मिलकर तन्मय हो जाती हैं। वह कैसे? वह ऐसे कि, दो अंश जिस परमाणु में अधिक होते हैं वह परमाणु हीनांशवाले परमाणु की स्नेह या रुक्षता को अपने समान एक कर लेता है। अर्थात्, अधिकांश गुणवाला परमाणु अपनी अवस्था का रूपान्तर होने नहीं देता, किन्तु हीनांश गुणवाले परमाणु के स्पर्श को बदल कर अपने समान कर लेता है। जहाँ दोनों ही स्निग्ध परमाणु हों वहाँ बन्ध होने पर स्निग्धता कायम रहती है। जहाँ दोनों ही रुक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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