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________________ तृतीय अधिकार :: 139 अग्राह्य का खुलासा - अग्राह्य या अग्रहण वर्गणा आहार द्रव्य से प्रारम्भ होकर तैजस द्रव्य वर्गणा को प्राप्त नहीं होती है, अथवा तैजस द्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर भाषा द्रव्य को प्राप्त नहीं होती है, अथवा तैजस द्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर भाषा द्रव्य को प्राप्त नहीं होती है, अथवा भाषा द्रव्य वर्गणा से प्रारम्भ होकर मनो द्रव्य को प्राप्त नहीं होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर कार्मण द्रव्य को प्राप्त नहीं होती है । अतः उन दोनों द्रव्यों के मध्य में जो होतीं हैं उन सबकी अग्राह्य या अग्रहण द्रव्य वर्गणा संज्ञा है । (ष. ख. पु. 14, सूत्र 5, पृ. 6 ) संख्याताणुवर्गणा नाम के प्रथम भेद में द्व्यणुकादिक स्कन्ध गर्भित होते हैं। सबसे अधिक परमाणुओं पिंड को महास्कन्ध वर्गणा कहते हैं। चौथी, छठी, आठवीं, दशवीं और बारहवीं वर्गणा जीव के उपयोग में आती हैं। बाकी सभी जीव से जुदी ही रहती हैं। जो जीव से सम्बद्ध होती हैं उनके बीच-बीच में भी ऐसे एक-एक स्कन्धभेद होते हैं। उन्हें अग्राह्य नाम से कहा है । यह सब बन्ध की विचित्रता है । अजीव तत्त्ववर्णन का उपसंहार इतीहाजीवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते । शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ 77 ॥ - अर्थ — इस प्रकार जो शेष आस्रवादि छह तत्त्वों के साथ-साथ अजीव तत्त्व का श्रद्धान करता है, समझ लेता है और हेय को समझ कर छोड़ता है अथवा उससे उपेक्षित हो जाता है वह जीव संसारबन्धन से छूटकर मुक्त हो सकता है। अमूर्त द्रव्यों का समर्थन : अजीव व जीव को मिलकर छह भेद माने गये हैं, परन्तु लोक व्यवहार में सर्वप्रसिद्ध व सर्वोपयोगयोग्य एक पुद्गल द्रव्य ही माना जाता है। बाकी के पाँच द्रव्य सर्वानुभवगोचर नहीं हैं। अत एव पुद्गल द्रव्य सभी को मान्य है, परन्तु पाँच द्रव्यों के विषय में अनेकों विवाद हैं। कितने ही तो जीवद्रव्य को नहीं मानते और कितने ही बाकी चार द्रव्यों के मानने में आनाकानी करते हैं, परन्तु इन द्रव्यों की सिद्धि इस प्रकार होती है— जीव द्रव्य सिद्धि : पुद्गल द्रव्य तो सर्वमान्य है ही । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श-गुण युक्त होना पुद्गल का लक्षण है। जब तक इतर जड़ द्रव्य सिद्ध नहीं हुए तब तक जड़ता भी पुद्गल का लक्षण हो सकता है । मूर्त' भी हम पुद्गल को ही कहते हैं । मूर्त का अर्थ हम 'स्पर्शादि चारों गुणों का एकत्र निवास' ऐसा करते हैं। मध्यम परिमाण भी पुद्गल में ही रहता है। यद्यपि मध्यम परिमाण वाले पौलिक शरीर द्वारा बद्ध जीव का भी मध्यम परिमाण हो सकता है, परन्तु उसे मूर्त नहीं कह सकते हैं एवं पुद्गलों के परमाणु स्वयं मध्यम - परिमाणयुक्त नहीं होते, परन्तु मूर्त द्रव्यों के निदान कारण होने से मूर्त नाम पा सकते हैं। अच्छा, अब यह देखिए कि पुद्गल का लक्षण क्या हुआ ? संक्षिप्त लक्षण जड़ता व मूर्तिकपना हुआ। जीव का स्वरूप इस पुद्गल से उलटा मानना चाहिए, इसलिए हम जीव को अमूर्तिक तथा चेतन 1. रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्ति: । - सर्वा.सि., वृ. 535 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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