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________________ (४) मुक्ताफलशुं गईली बनावे, श्री शुनवीर जिणंद वधा वे तो॥ वी० ॥ ॥ इति ॥ ३७॥ ॥ अथ गहूली आडत्रीशमी॥ ॥द्वारका नगरी दीपती॥जिन वंदिये । वसे जादव कुलनो परिवार ॥रे जिन वंदीयें ॥ जिनजी ते आ वी समोसस्या ॥ जि० ॥ साथें गणधर वर अढार ।। रे जि०॥ १॥ अढार सहस साधु जला॥ जि० ॥ ते तो लब्धि तणारे जंमार ॥ रे जिण ॥ समवसरण देवें रच्यु | जि ॥ तिहां बेठी पर्षदा बार ॥ रे जि० ॥२॥ कृलजी वांदवा आविया ॥ जि० ॥ साथे अंते उरनो परिवार ॥रे जि॥ गढूंली ते करे मन रंग शुं ॥ जि० ॥ सत्यनामा रुक्मिणी नार ॥रे जि०॥३ ॥ पहेरी पटोलां दाडमी ॥ जि०॥ पाये फांऊरनोज मकार ॥रे जि०॥ मुक्ताफलनो साथियो । जि ॥ पांच रतन्न ते पंचाचार ॥रे जि॥४॥ लली लली लेती खूबणां ॥ जि०॥ जिनमुखडां जूवे रे निहाल ॥रे जि०॥ कृमजीयें प्रजुजीने पूब्युि ॥ जि० ॥ मुज श्रम चड्यो रे अपार ॥रे जि० ॥५॥ प्रजुजी कहे श्रम उतस्यो ॥ जि ॥ तमें कारज कयुं मनो हार ।। रे जि०॥ सातमीनी त्रीजी करी ॥ जि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003688
Book TitleGahuli Sangrahanama Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages146
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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