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________________ नाषान्तरसहित. २६१ नर्के गयो. माटे परिग्रहनी ममता वडे चेतन दुःख पामे तेथी तेनी मूळ टालवी. अर्थात् परिग्रह उपर ममत्वजाव करवो नहीं. ॥अथ संतोष विषे॥ सकल सुख नराए विश्व ते वश्य थाए, नवजलधि तराए फुःख दूरे पलाए ॥ निज जनम सुधारे आपदा दूर वारे, नितु धरम वधारे जेद संतोष धारे ॥६५॥ . नावार्थः- संतोषथी सर्व (घणां) सुख पामे अने बधी पृथवी वश थाय, संतोषयी संसाररुपी समुत्रने तरे अने फुःख वेगलां जाय, ए संतोष थकी पोतानो जन्मारो पण सुधरे तथा थापदा जे कष्ट ते पण पूरे जाय, जे प्राणी संतोषने श्रादरे ते नित्यप्रत्ये धर्ममां वधारो करे अर्थात् रुमो धर्म पामे. ६५ सकल सुखतणो ते सार संतोष जाणे, कनक रमणिकेरी जेद श्वान आणे ॥रजनि कपिल बांध्यो स्वर्णनी लोलताए, नमर कमल बांध्यो ते असंतोषताए॥६६॥ - जावार्थः-ज्यारे सघला सुखनुं मूलमंडाण जोश्ये त्यारे तो ए संतोष जाणवो, अर्थात् सर्व सुखनुं मूल संतोष , कनक श्रने कामिनी अर्थात् धन अने स्त्री ए बन्नेनीजे श्छा न करे तेने संतोषी जाणीये. जुर्ज-फक्त बे मासा सोनानी लोलुप्ताये करी रात्रिने विषे कपिल नामनो ब्राह्मण बंधाणो अने नमरो पण कमलमां बेगे थको वासना लेवामां लीन थवाने लीधे अर्थात् वासनाना असंतोषपणाने लीधे सूर्यास्तनी वेला पण जाणी शक्यो नही, तेथी कमल बीमाएं तेमां बंधाणो ते फरी नीकलवा समर्थ न थाय. माटे हरेक बाबतमां संतोष राखवो. ६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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