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________________ ( १० ) म जा शके ? अविद्याना अंधकारमां पमी रहेला आत्मरत्नने शावके खोळी काय ? श्वासोश्वासादि बाह्य प्राणोथी जीवन्त कहेवाता - देह एज हुँ एवी मान्यता करता मनुष्योनो आत्मा केवुं जीवन अनुभवे बे ? स्थावर अने जंगम रूप बाह्य समृकिने पोतानी समृद्धि माननाराओ आत्माने ओळखी शक्या बे के केम ? वैज्ञानिक विद्याथी पण आत्मा जेवो कोई देहगत पदार्थ अनुमान थइ शके बे ? सुख दुःखनो ज्ञाता कोण होवो जोइए ? या सर्व स्थितियो तपासवी मुश्केल बे तो आत्मज्ञान प्राप्त करी तेनो उन्नतिक्रम नक्की कर ते मार्गना अनुयायी थवं, ए विशेष प्रमाणमां दुर्लक्ष्य होय, तेनुं कहेवुज शुं ! जमवादना या जमानाने अंगे एक तरफयी आत्मज्ञान नष्ट थतुं जाय बे, तो बीजी तरफथी आत्मानुं अस्तित्व प्रतिपादन करनारा शास्त्रो जुदीज दिशामां गमन करता होवाथी आत्मारूप पदार्थतुं वास्तविक जान प्रकट थ‍ शकतुं नथी. जुम्रो ! बौद्ध दर्शन आत्माने अव्यरुपे क्षणस्थायी मानी वस्तुस्थितिमां सांकर्य उत्पन्न करे बे, मीमांसको सर्व अवस्थामा आत्मा नित्य ने प्रबंध माने बे, प्रत्येक शरीरे भिन्न भिन्न आत्मा मानतुं सांख्यदर्शन सर्व अवस्थामां आत्मा कर्ता ने अनोक्ता माने छे तेमज नैयायिक दर्शन पण जीवात्मा अने परमात्मा जुदा माने छे तेथी जीवात्मा परमात्मा थइ शके नहि विगेरे मान्यताने अवलंबी आत्मवादने अन्यथारुपे करेलो बे. तदुपरांत प्रत्यक्ष प्रमाणनेज माननारा आत्मारूप पदार्थ नहीं देखातो होवाथी तेना अस्तित्वनीज उपका करता होवाथी आत्मवादयी विदूर छे. आ रीते आत्माने शाधवो अने ते यथार्थ ते शोधवो ए सामान्य बुद्धिगम्य नथी, परंतु तेने वास्तविक रीते शोधी मूळस्वरूपनी ओळखाण कराववी ए सूक्ष्म बुद्धिगम्य होवाथी जैनदर्शने निवेदन क रेला नित्यानित्यरूप, प्रव्यपर्यायात्मक, faar व्यवहारमय — विगेरे अपेक्षाओ व जुदी जुदी अवस्थामां प्राप्त यता स्वरूपने शास्त्र साधनव मे नीहाळी अनुष्ठान रूप कप, छेद, नेतापरुप कसोटीए चडावी सुवर्णनी जेम आत्मशुद्धि - एकात्म ओळख काढवो ए आ दश दृष्टांतथी फुर्लन मनुष्यजन्मनुं पूर्व कर्तव्य बे, जे स्वयंसिद्ध बे ने अध्यात्मज्ञानी प्रो तेमज संबोधि गया बे.. चतुर्गतिमां पद धरावती मनुज गतिने प्राप्त ययेला मनुष्यमाणी के मांन्य गति करतां बुद्धिमत्ता विशाळ प्रमाणमां प्राक् पुण्य कर्मने अंगे मळेली होय बे ते त्रण प्रकारना जीवन वमे जीवता होय . ( १ ) बहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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