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________________ (११) रात्म जीवन (६) अंतरात्म जीवन (३) परमात्म जीवन. आत्माने नहि ओळखनार पौद्गलिक जावोमां रची पची रहेनार अने स्थूळदेहवमे अनुग्रह अने उपघात युक्त बनता दरेक पदार्थोनी क्रियाने पोतानी माननार, दरेक प्रसंगे स्वत्वर्नु आरोपण करनार, सर्व मनुष्या बहिरात्म जीवनवाळा गणायला. आ मनुष्योना साडा त्रण हाथनी अवगाहनावाळा देहगत प्रमाण वाळो आत्मा पोतानी आसपासना तेमज बहु दूर रहेला पदार्थोनो का पोतानेज माने छे. आ स्वरूपमा आत्मस्वनाव, आ. च्छादन थइ गयेधुं होवाथी तेत्रो प्रथम कोटिमां वर्ते छै. बीजी कोटिमां वर्तता मनुष्यो 'आत्माने ओलखी लेनारा' होय जे; तेमने समजाय छे के हुं कोण बुं ? आ पौद्गनिक सर्व पदार्थोथी मारी स्थिति विलक्षण प्रकारनी . मारो अने तेनो संबंध पूर्व अने पश्चिम दिशानी जेवो ; उतां आजसुधी दिङ्मूढ प्राणीनी जेम पूर्व ने पश्चिम दिशा गणी बने एकज ने तेवा घ्रांतिजन्य अज्ञानमा वासित हतो. चौदराजलोकना सर्व जम पदार्थोथी पोताने जुदोज समजी बेनारा पोतानी मर्यादाने वास्तविक स्थितिमां समजी लेनारा मनुष्यो अंतरात्म जीवन वझे सजीव गणाय बे; परंतु परमात्मजीवनयुकत मनुष्योए आत्माने स्वरूपवमे संपूर्ण रीते ओळखी लीधेलो छ; अने ते एवी रीते ओळखी लीधेलो डे के, जे पुनः कदापि विस्मृतिना पटमां अदृश्य न थाय ! एटटुंज नहि, परंतु तेओए जगत्ना सर्व प्राणीओना आत्मानी परिस्थिति जाणी सीधेली . आ मनुष्यो कदापि आत्मा शिवाय अन्य वस्तुना संबंधनी इच्छा करता नथी. ज्यांसुधी देहधारीपणे होय त्यांसुधी आ संसारमा विहरे पीथी निरीहनावपणे रहेला देहसंबंधने पण तजीने पूर्णानंदमय आत्माज मात्र लोकाग्रे विराजे जे अने ते शाश्वतपणे आत्मानुभव करता सदा जीवन्त . आथी ए पण सिद्ध थाय ने के जेटले जेटले अंशे सार्थक थाय-आत्मझान-आत्मबोध प्राप्त थाय तेटने तेटने अंशे आत्माना श्रात्मत्वनो आविर्भाव . आत्माने उच्च कोटिमां मूकवाने माटे, रागधेष दूर करवाना शिक्षणने घणा दर्शनकारो सम्मत थयेला डे; परंतु तेने दूर करवाना अनुष्ठानोमां अनेक गुण तफावत जे. जैनदर्शन वझे निरूपण करायलो आ क्रम सर्व दर्शनोथी अग्रपद धरावे छे, एम कह अतिशयोक्ति नरेखें कदापि यशेज नहि. केमके कर्मनी बंध, निधत्त, निकाचित, उदय, उदीरणां विगेरे अवस्थाओ, आत्मप्रदेशनी साथे श्रतो तेमनो संबंध, ते घड़े आत्माने प्राप्त थतो अनुग्रह अने उपघात तेमज कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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