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________________ उपोद्घात. प्रत्येक ग्रंथना यांतर शरीरनी घटनानो आधार खास करीने तेना अनुबंध चतुष्टय उपर होवाथी तेनी जेवा प्रकारे संकलना थयेली होय तदनुसार विद्वज्जनो ग्रंथ महत्वतानी समीक्षा करे छे, मंगळ, अभिधेय, प्रयोजन असंबंधरुप या चतुष्टय ग्रंथनी आदरणीयता तरफ दिग्दर्शन करावी वांचकोने सन्मुख यवा प्रवृत्ति करावे छे. जे ग्रंथनी आदिमां अढार दोष रहित सर्वज्ञ परमात्माने नमस्कार होय, जे ग्रंथमां आत्मानो उद्बोधन क्रम अभिधेय होय, जे ग्रंथ प्रयोजन स्वपरने व्यावहारिक मात्र नहि किंतु आत्मिक हित शीघ्रपणे प्राप्त करावतुं होय, अने जे ग्रंथमां दर्शावेला आंतरभावो रूप उपायो वमे कर्मक्षयथी उत्पन्न थली मुक्ति संपादन थइ शके-आवा ग्रंथो लौकिक फळदानने बंधी अलौकिक फळदान सादर करे तेमां शुं आश्चर्य ! जैनदर्शनना ग्रंथकारोए प्रथमथीज आवाज अनुबंध चतुष्टयनी योजना करेली छे, जे प्रशस्य होइ ज्ञान प्राप्त करना उत्तम फळने अनिल बे. सन्मुख थयेला वांचको पछी थी नागोनुं निरीक्षण करी स्वरुचि ने स्वादर रूप तुलाओ वमे ग्रंथपरत्वे पोताना अधिकारनी तुलना करे बे; तदनुसार श्रवण मनन के वांचन तरफ प्रवृत्तिशील बने छे, ने बुद्धिना क्षयोपशम प्रमाणे ग्रंथावलोकननी समीक्षा थायबे. श्रुत, चिंता ने जावनाना सतत परिशीलन व ग्रंथनी प्रांतर सुंदरता प्रोलखवामां आवे छे अने भावनाना परिपाकपणा पछी ग्रंथना चर्मदृष्टि देखाता स्थूलजावोनुं चैतन्यमय आत्मा साथे आरोपण थाय छेत्र ग्रंथकारनो श्रम संपूर्ण फळग्राही बने बे. , " आत्मा शब्दनो अर्थ आत्मप्रबोध ग्रंथना व्याख्याकारे ' अततीति आत्मा ते ते जावने सततपणे प्राप्त करे ते आत्मा' ए रीते शरुआतमां कहेलो बे, ते पूर्व जावसूचक बे. पश्चिमथी पूर्वतरफ जोसबंध वदेता आजम - वादना जमानामा आत्मा ए शुं वस्तु बे ? ते अरूपी होवा बतां केवा लक्षणो ah ओळख शकाय बे ? जकुलगतकेसरीनी पेठे पोतानुं स्वरूप कया साधनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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