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________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग } [ 529 ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तटु पयाई अणुगच्छद, अणुगच्छित्ता वामं जाणुअंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणियलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चण्णमइत्ता कडय-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयल जाव [परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि] कटु एवं क्यासी-- वह काली देवी इस केवल-कल्प (सम्पूर्ण) जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से उपयोग लगाती हुई देख रही थी। उसने जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में, राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में, यथाप्रतिरूप-साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके, संयम और तप द्वारा प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा / देखकर वह हर्षित और संतुष्ट हुई। उसका चित्त प्रानन्दित हुया / मन प्रीतियुक्त हो गया। वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी। पादपीठ से नीचे उतरो / उसने पादुका (खडाऊँ) उतार दिए / फिर तीर्थकर भगवान् के सन्मुख सात-पाठ पर आगे बढ़ी। बढ़कर बायें घुटने को ऊपर रखा और दाहिने घुटने को पृथ्वी पर टेक दिया। फिर मस्तक कूछ ऊँचा किया। तत्पश्चात् कड़ों और बाजबंदों से स्तंभित भजात्रों को मिलाया / मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर [मस्तक पर अंजलि करके, आवर्त करके] इस प्रकार कहने लगी ९–णमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ णं मे समणे भगवं महावीरे तत्थ गए इह गयं, ति कटु वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहा निसण्णा / यावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो / यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो / यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान् को वन्दना करती हूँ। वहाँ स्थित श्रमण भगवान् महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें / इस प्रकार कह कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई। १०-तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था—'सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दाविता एवं वयासी -'एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ, जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह / करित्ता जाव पच्चप्पिणह।' ते वि तहेव जाव करित्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवरं जोयणसहस्सविच्छिन्नं जाणं, सेसं तहेव / णामगोयं साहेइ, तहेब नट्टविहिं उवदंसेइ, जाव पडिगया। __तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुा-'श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करके यावत् उनको पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके पाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने 1. विस्तार के लिए देखिए राजप्रश्नीय सूत्र 9. सारांश पहले दिया जा चका है। देखें पृष्ठ 338. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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