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________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 259 देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली। विदेहरायवरकण्णाए छिण्णस्स वि पायंगुढगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ त्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। ___'इसी प्रकार हे जितशत्रु ! दूसरे बहुत से राजानों एवं ईश्वरों यावत् सार्थवाह आदि की पत्नी, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू तुमने देखी नहीं / इसी कारण समझते हो कि जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा दूसरे का नहीं है / है, जितशत्रु ! मिथिला नगरी में कुभ राजा की पुत्री और प्रभावती की पात्मजा मल्ली नाम की कुमारी रूप और यौवन में तथा लावण्य में जैसी उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या वगैरह भी नहीं है। विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या के काटे हुए पैर के अंगुल के लाखवें अंश के बराबर भी तुम्हारा यह अन्तःपुर नहीं है।' इस प्रकार कह कर वह परिवाजिका जिस दिशा से प्रकट हुई थी-आई थी, उसी दिशा में लौट गई। 122 --तए णं जियसत्तू परिव्वाइयाजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता जाव पहारेथ गमणाए। तत्पश्चात् परिव्राजिका के द्वारा उत्पन्न किये गये हर्ष वाले राजा जितशत्रु ने दूत को बुलाया। बुलाकर पहले के समान ही सब कहा / यावत् वह दूत मिथिला जाने के लिये रवाना हो गया। विवेचनइस प्रकार मल्लि कुमारी के पूर्वभव के साथी छहों राजाओं ने अपने-अपने लिए कुमारी की मँगनी करने के लिए अपने-अपने दूत रवाना किये / दतों का संदेशनिवेदन १२३–तए णं तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ___ इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गये। १२४–तए गं छप्पि य दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करित्ता मिहिलं रायहाणि अणुपविसंति / अणुपविसित्ता जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं करयल' परिग्गहियं साणं साणं राईणं वयणाई निवेदेति / तत्पश्चात् छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ पाये / प्राकर मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग-अलग पड़ाव डाले। फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आये / पाकर प्रत्येक-प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने-अपने राजाओं के वचन निवेदन किये--सन्देश कहे / (मल्ली कुमारी की मांग की। 1. प्रथम प्र.१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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