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________________ 260 ] [ ज्ञाताधर्मकथा दूतों का अपमान १२५--तए णं से कुभए राया तेसि दूयाणं अंतिए एयमढं सोच्चा आसुरुत्ते जाव [रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे] तिवलियं भिडि पिडाले साहट्ट एवं वयासी ...'न देमि गं अहं तुम्भं मल्लि विदेहरायवरकन्न' ति कटु ते छप्पि दुते असक्कारिय असंमाणिय अवदारेणं णिच्छुभावेइ। कुम्भ राजा उन दूतों से यह बात सुनकर एकदम क्रुद्ध हो गया / [रुष्ट और प्रचंड हो उठा। दांत पीसते हुए] यावत् ललाट पर तीन सल डाल कर उसने कहा- 'मैं तुम्हें (छह में से किसी भी राजा को] विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली नहीं देता।' ऐसा कह कर छहों दूतों का सत्कारसन्मान न करके उन्हें पीछे के द्वार से निकाल दिया। १२६-तए णं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुभएणं रण्णा असक्कारिया असम्माणिया अवदारेणं निच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जणवया, जेणेव सयाइं सयाई गगराई जेणेव सगा सगा रायाणो तेणेव उवागच्छंति / उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं क्यासी कुम्भ राजा के द्वारा असत्कारित, असम्मानित और अपद्वार (पिछले द्वार) से निष्कासित वे छहों राजाओं के दूत जहाँ अपने-अपने जनपद थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे और जहाँ अपने-अपने राजा थे, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर हाथ जोड़ कर एवं मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहने लगे-- १२७-एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं या जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं निच्छुभावेइ, तं न देइ णं सामी ! कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं, साणं साणं राईणं एयळं निवेदेति / ___ 'इस प्रकार हे स्वामिन् ! हम जितशत्रु वगैरह छह राजारों के दूत एक ही साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ पहुँचे। मगर यावत् राजा कुम्भ ने सत्कार-सन्मान न करके हमें अपद्वार से निकाल दिया / सो हे स्वामिन् ! कुम्भ राजा विदेहराजवरकन्या मल्ली पाप को नहीं देता।' दूतों ने अपने-अपने राजाओं से यह अर्थ-वृत्तान्त निवेदन किया। युद्ध की तैयारी १२८-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसि दूयाणं अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमणस्स दूयसंपेसणं करेंति, करिता एवं वयासी-- 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छण्हं राईणं या जमगसमगं चेव जाव णिच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुपिया! अम्हं कुभगस्स जत्तं (जुत्तं) गेण्हित्तए' त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता व्हाया सण्णद्धा हस्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणा महयाहय-गय-रह-पवरजोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडा सव्विड्डीए जाव दुदुभिनाइयरवेणं सहिंतो सएहितो नगरेहितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायति, मिलाइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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