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________________ 258 ] - [ज्ञाताधर्मकथा ..' तए णं से सामुंद्दए दद्दुरे तं कूवदुर एवं वासी-'महालए णं देवाणुप्पिया! समुह / ' 2. तए णं से कूवदद्दुरे पाएणं लीहं कडढेइ, कड्डित्ता एवं वयासी–एमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 'णो इणठे समठे, महालए णं से समुद्दे / ' तए णं से कूवदद्दुरे पुरच्छिमिल्लाओ तोराओ उम्फिडित्ता णं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी- 'एमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 'णो इणठे समझें / ' तहेव / तब चोक्खा परिवाजिका जितशत्रु राजा के इस प्रकार कहने पर थोड़ी मुस्कराई। फिर मुस्करा कर बोली- 'देवानुप्रिय ! इस प्रकार कहते हुए तुम उस कूप-मंडूक के समान जान पड़ते हो।' जितशत्रु ने पूछा-- 'देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कूपमंडूक ?' चोक्खा बोली-'जितशत्रु ! यथानामक अर्थात् कुछ भी नाम वाला एक कुएँ का मेंढक था। बह मेंढक उसी कूप में उत्पन्न हुअा था, उसी में बढ़ा था। उसने दूसरा कूप, तालाब, ह्रद, सर अथवा समुद्र देखा नहीं था / अतएव वह मानता था कि यही कूप है और यही सागर है-इसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। तत्पश्चात् किसी समय उस कप में एक समुद्री मेंढक अचानक पा गया / तब कूप के मेंढक ने कहा- 'देवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहाँ से अचानक यहाँ आये हो ?' तब समुद्र के मेंढक ने कूप के मेंढक से कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हूँ।' तब कूपमंडूक ने समुद्रमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! वह समुद्र कितना बड़ा है ?' तब समुद्रीमंडूक ने कूपमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! समुद्र बहुत बड़ा है।' तब कूपमण्डूक ने अपने पैर से एक लकीर खींची और कहा-'देवानुप्रिय ! क्या इतना बड़ा है?' समुद्री मण्डूक बोला -'यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् समुद्र तो इससे बहुत बड़ा है / ' तब कूपमण्डूक पूर्व दिशा के किनारे से उछल कर दूर गया और फिर बोला--'देवानुप्रिय ! वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ?' समुद्री मेंढक ने कहा--'यह अर्थ समर्थ नहीं, समुद्र तो इससे भी बड़ा है / इसी प्रकार (इससे भी अधिक कूद-कूद कर कूपमण्डूक ने समुद्र की विशालता के विषय में पूछा, मगर समुद्रमण्डूक हर बार उसी प्रकार उत्तर देता गया / ) १२१--एवामेव तुमं पि जियसत्तू ! अन्नेसि वहणं राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं भज्जं वा भगिणि वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि-जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स। तं एवं खलु जियसत्तु ! मिहिलाए नयरीए कुभगस्स धूआ पभावईए अत्तया मल्ली नामं विदेहवररायकण्णा रूवेण य जोव्वणेण जाव [लावणेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा] नो खलु अण्णा काई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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