SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व कल्याणसाधना की भव्य प्रेरणायें तथा उच्च शुभ अध्यवसायें का अमूल्य लाभ मिलेगा ! ऐसे विषम काल में ऐसा अद्भुत तारक श्रवण मुझे मिलता है, मेरा कैसा अहोभाग्य !' वस्तु का जितने गहरे आदर - बहुमान - आतुरता से स्वागत करेंगे, उससे उतना ही ऊँचा लाभ मिलेगा, क्योंकि आत्मा पर उसकी ऐसी जोरदार प्रतिक्रिया होती ग्रंथकार महर्षि आचार्य भगवंत श्री उद्योतनसूरिजी महाराज ग्रंथ शुरू करते हुए प्रारंभ में इस अवसर्पिणी में प्रथम धर्मप्रकाश फैलानेवाले प्रथम तीर्थपति भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी की अदभुत स्तवना का विस्तार कर रहे हैं - उन भगवान प्रथम जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करो..... (२) जो प्रभु देवों द्वारा की गयी मज्जनविधि से सुशोभित किए हए अपने शरीर को सामने खड़े हुए युगलिकों के हाथ में रहे हुए कमलपत्र के जल की लहरों में प्रतिबिंब के रूप में चलता हुआ देखते हैं । (३) गुरुओ के भी गुरु जिस प्रभु ने दीक्षा के समय अपने कंधेपर लटकते हुए केशकलाप को इन्द्र द्वारा सहर्ष स्थापित किये गये देवदूष्य से शोभित किया । (४) तप से पाप कर्म को जला कर केवल ज्ञान उत्पन्न होने से जो प्रभु संसार तिर गये, इससे देव समूह नृत्य करने लगा। (५) जिनके तीर्थ-स्थापन के समय इन्द्र अपने इन्द्रत्व का गौरव छोड़कर मस्तक पर हाथ लगाकर जिन प्रभु के चरणों में झुके ! उन प्रथम राजा और प्रथम धर्म प्रवर्तक तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करो। तीर्थंकर भगवान के उत्कृष्ट पुण्य-समूह का कैसा प्रभाव है कि देव और इन्द्र प्रभु के जन्म आदि प्रसंगो पर आकर भक्ति - गुणगान करते हैं | मंगलाचरण के रूप में इन श्लोकों में यह बताया गया है । ऋषभदेव प्रभु की स्तुति करने के बाद चरम तीर्थपति श्री महावीर स्वामी की विशिष्ट रीति से स्तुति करते हुए कहते भगवान महावीर स्वामी के अडिग धैर्य के आगे हार के अंतिम छोर पर पहुँचा हुआ संगमदेव अब अनुकूल उपसर्ग करने के लिये सुहानी वसंत ऋतु विकुर्वित करके कहता है - - २ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy