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________________ 'हे सुखदाता ! तू कृपा कर | तू प्रसन्न हो ! तेरे चरणों में मैं अंजलि अर्पण करता हूँ | नवजात नीलकमल जैसी नज़र का एक कटाक्ष तो हम पर होने दे ।' वसंत ऋतु के इस प्रलोभन को निष्फल बनानेवाले जो प्रभु ध्यान से तनिक भी चलित नहीं हुए, उन वीर प्रभु को भक्ति भरे नमस्कार ! इसमें प्रभु के प्रखर वैराग्य के साथ ध्यान की निश्चलता बतायी कि वसंत ऋतु की ललचाने वाली महाशोभा, जो चकाचक विकसित हो उठी थी, उसे देखने के लिये प्रभु ने एक बार भी दृष्टि नहीं डाली । सर्व जिन स्तुति : अब सर्व जिनेश्वर भगवंतो की स्तुति करते हुए कहते हैं कि “जन्म जरा मृत्यु के वारंवार के पुनरावर्तन में फंसे हुए दुःखी जीवों को संसार सागर से पार करने के लिए समर्थ सर्व जिनेश्वरों को नमस्कार करो ।" धर्म तीर्थ की स्तुति करते हुए कहते हैं कि - जिस धर्म तीर्थ में आये हुए जीव बोध पाते हैं और कई जीव तुरन्त कर्ममल से रहित बनकर सिद्धिपद प्राप्त करते हैं तथा जिसे जिनेश्वर देवों ने भी नमस्कार किया है, उस तीर्थ को भी भाव से नमस्कार करो। धर्म ही कर्तव्य क्यों ? उसकी भूमिका :- इस प्रकार नमस्कारविधि करने के बाद ग्रंथकार महर्षि मनुष्य-जन्म में धर्म ही क्यों कर्तव्य है, यह बात सुन्दर भूमिका बांधकर इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :__ क्रोध - लोभ - मान - माया का नशा और मोह - अज्ञान से मूढ़ बने हुए हृदयवाले जीव का नरकगति में पतन होता है, इससे उसके चित्तपरिणाम ऐसे तीव्र रागद्वेष के संक्लेशवाले रहते हैं कि इससे जीव पर लगे कर्म-कीचड़ से जीव एकदम भारी बन जाता है । उस नरकगति में से निकलकर जीव तिर्यंच गति में आता है । क्यों कि नरक में अनेक प्रकार की ताड़न - छेदन - भेदन की विडंबनाओं में जीव शान्ति थोड़े ही रख सकता है ? यहाँ मानव भव में थोड़ीसी पीड़ा में भी यदि चित्त व्याकुल बनता है, तो वहाँ नरक में तो अनेक प्रकार की भयंकर पीड़ाओ में चित्त भारी संक्लेश वाला बने, यह सहज है, इसीसे तिर्यंचगति के योग्य कर्म का (भाथा) पाथेय बांधता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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