SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ सम्यक्त्वशल्योद्धार ऐसा एकांत किसी भी ठिकाने लिखा नहीं है, और न हम इस तरह मानते हैं। _ और जेठे ने लिखा है कि "श्रीभगवतीसूत्र के पांचवें शतक के छठे उद्देश में कहा है कि जीव हने, झूठ बोले, साधु को अनेषणीय आहार देवे, तो अल्प आयुष्य बांधे" यह पाठ सत्य है, परंतु इस पाठ में जीव हने, झूठ बोले, यह लिखा है । सो आहार निमित्त समझना । अर्थात् साधु निमित्त आहार बनाते जो हिंसा होवे सो हिंसा और साधु निमित्त बना के अपने निमित्त कहना सो असत्य समझना । तथा इस ही उद्देश के इस से अगले आलवे में लिखा है कि जीवदया पाले, असत्य न बोले, साधु को शुद्ध आहार देवे, तो दीर्ध आयुष्य बांधे। इस आलावे की अपेक्षा अल्प आयुष्य भी शुभ बांधे, अशुभ नही क्योंकि इस ही सूत्र के आठवें शतक के छठे उद्देश में लिखा है कि समणोवासगस्स णं भंते तहारूवं समणं वा माहण वा अफासुण्णं अणेसणिजेणं असणं पाणं जावपडिलाभेमाणे किं कन्जइ ? गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कजइ अप्पतराए से पावे कम्मे कजइ ___ अर्थ - हे भगवन् ! तथारूप श्रमण माहन को अप्राशूक अनेषणीय अशन पान वगैरह देने से श्रमणोपासकको क्या होवे ? ___ हे गौतम ! पूर्वोक्त काम करने से उसका बहुतर निर्जरा हो, और अल्पतर पापकर्म होगा, अब विचारो कि साधु को अप्राशूक अनेषणीय आहारादि देने से अल्पतर अर्थात् बहुत ही थोडा पाप, और बहुतर अर्थात् बहुत ज्यादा निर्जरा हो तो बहुनिर्जरा वाला ऐसा अशुभ आयुष्य जीव कैसे बांधे ? कदापि न बांधे । परंतु ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभावसे यह पाठ जेठे को दिखाई दिया मालूम नहीं होता है। क्योंकि उत्सूत्र प्ररूपक शिरोमणि, कुमतिसरदार जेठा इस प्रश्नोत्तर के अंतमें "मांस के भोगी और मांस के दाता, दोनों की नरकगामी होते हैं, वैसे ही आधाकर्मीका भी जान लेना इस तरह लिखता है। परंतु पूर्वोक्त पाठ में तो अप्राशूक अनेषणीय दाता को बहुत निर्जरा करनेवाला लिखा है, पृष्ट १८. पंक्ति १३. में जेठे ने अप्राशूक अनेषणीय का अर्थ आधाकर्मी लिखा है, परंतु आधाकर्मी तो अनेषणीय आहार के ४२. दूषणों में से एक दूषण है। क्या करे ? अकल ठिकाने न होने से यह बात जेठे की समझ में आई नहीं मालूम होती है। तथा ढूंढिये पाट, पातरे, थानक वगैरह प्रायः हमेशा आधाकर्मी ही वरतते हैं, क्योंकि इनके थानक प्रायः रिखों के वास्ते ही होते हैं । श्रावक उन में रहते नही है, पाट भी रिखों के वास्ते ही होते है। श्रावक उन पर सोते नहीं है और पातरे भी रिखों के वास्ते ही बनाने में आते हैं। क्योंकि श्रावक उनमें खाते नहीं है, तथा ढूंढिये अहीर, छींबे, कलाल, कुंभार, नाई, वगैरह जातियोंका प्रायः आहार ला के खाते हैं । सो भी दोषयुक्त आहार का ही भक्षण करते हैं, क्योंकि श्रावक लोग तो प्रसंग से दूषणों के जानकार प्रायः होते हैं। परंतु वे अज्ञानी तो इस बात को प्रायः स्वप्न में भी नहीं जानते हैं। इसवास्ते जेठे के दिये मांसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy