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________________ ३१ तीसेणं समए भारहेवासे तत्थ तत्थ बहवे बणराइओ पण्णत्ताओ किहाओ किण्हाभासाओ जावमणोहराओ यमत्तछप्पय कोरग भिंगारग कोडलग जीव जीवगणंदिमुहकविल पिंगल लखग कारंडक चक्कवाय कलहंस सारस अणेग सउणगण मिहुण विरियाओ सदुणणत्तिए महुर सरणादिताउ संपिंडिय णाणाविहा गूच्छवावी पुरकरिणी दीहियासु इत्यादि ।। अर्थ - उस समय भरतक्षेत्र में वहां वहां बहुत बनराज हैं, कृष्ण कृष्णवर्णशोभावत् यावत् मनोहर है । मद कर के रक्त ऐसे भ्रमर, कोरक भींगारक, कोडलक, जीव जीवक, नंदिमुख, कपिल, पिंगल, लखग, कारंडक, चक्रवाक, कलहंस, सारस अनेक पक्षियों के मिथुन (जोडे) उनसे सहित है। वृक्ष मधुर स्वर कर के इकट्ठे हुए हैं । नानाप्रकार के गुच्छे वौडियां पुष्कारिणी, दीर्धिका वगैरह में पक्षी विचरते हैं। ऊपर लिखे सूत्रपाठ में प्रथम आरे भरतक्षेत्र में बौडी, पुष्करिणी आदि का वर्णन किया हे । तो विचारो कि वौडी किसने कराई ? शाश्वती तो है नहीं, क्योंकि सूत्रों में वे वौडियां शाश्वती कही नहीं हैं। और उस काल में तो युगलिये नव कोटाकोटि सागरोपम से भरतक्षेत्र में थे । उनको तो यह बौडी आदि का करना है नहीं । तो उससे पहिले की अर्थात् नव कोटाकोटी सागरोपम जितने असंख्यातेकाल की वे नौडियां रही । तो श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा तथा अष्टापद तीर्थोपरि श्रीजिनमंदिर देव सांनिध्यसे असंख्यात काल तक रहे इसमें क्या आश्चर्य है ? __ प्रश्न के अंतमें जेठा लिखता है कि "पृथिवीकाय की स्थिति तो बाईस हजार (२२०००)वर्ष की उत्कृष्टी है, और देवताओं की शक्ति कोई आयुष्य बधाने की नहीं। इस तरह लिखने से लिखने वाले ने निःकेवल अपनी मूर्खता दिखलाई है। क्योंकि प्रतिमा कोई पृथिवीकाय के जीवयुक्त नहीं है। किंतु पृथ्वीकाय का दल है । तथा जेठा लिखता है कि "पहाड तो पृथ्वी के साथ लगे रहते हैं । इस वास्ते अधिक वर्ष रहते हैं । परंतु उसमें से पत्थर का टुकडा अलग किया हो तो बाइस हजार वर्ष उपरांत रहे नहीं" इस लेखा से तो वह पत्थर नाश हो जाने अर्थात् पुद्गल भी रहे नहीं ऐसा सिद्ध होता है, और इससे जेठे की श्रद्धा ऐसी मालूम होती है कि किसी ढूंढकका सौ (१००)वर्ष का आयुष्य हो तो वह पूर्ण होए । उस का पुदगल भी स्वयं ही नाश हो जाता है। उस को अग्निदाह करना ही नहीं पडता ! ऐसे अज्ञानी के लेख पर भरोसा रखना यह संसारभ्रमणका ही हेतु है ।। इति तृतीय प्रश्नोत्तर खंडनम् ।। ४. आधाकर्मी आहार विषयक : चौथै प्रश्नोत्तर में लिखा है कि "देवगुरु धर्म के वास्ते आधाकर्मी आहार देने में लाभ है" जेठे ढूंढक का यह लिखना निःकेवल झूठ है, क्योंकि हमारे जैनशास्त्रों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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