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________________ ३३ दृष्टांत मुजिब ढूंढियों के रिखों को और उन को आहार पानी वगैरह देने वालों को अनंता संसार परिभ्रमण करना पडेगा हाय ! अफसोस ! बिचारे अनजान लोक तुम्हारे जैसे कुपात्र को आहार पानी वगैरह दे, और उसमें पुण्य समझें, उनकी स्थिति तो उलटी अनंत संसार परिभ्रमण की होती है। तो उससे तो बेहतर है कि उन रिखों को अपने घर में आने ही न दे कि जिससे अनंत संसार परिभ्रमण करना न पड़े। और श्रीसूयगडांगसूत्र के अध्ययन २१. में तथा श्रीभगवतीसूत्र के शतक ८. में रोगादि कारण में आधाकर्मी आहार की आज्ञा है, कारण विना नहीं, सो पाठ प्रथम लिख आए हैं । जेठे ढूंढक ने यह पाठ क्यों नहीं देखा ? भाव नेत्र तो नहीं थे, परंतु क्या द्रव्य भी नहीं थे ? __ तथा श्रीभगवतीसूत्र में कहा है कि रेवती श्राविका ने प्रभु का दाहज्वर मिटाने निमित्त बीजोरापाक कराया, और घोडे के वास्ते कोलापाक कराया, प्रभु केवलज्ञान के धनी थे तो अपने वास्ते बनाया बीजोरापाक लेना निषेध किया और कोलापाक लाने की सिंह अणगार को आज्ञा करी, वो ले आया । और प्रभु ने रागद्वेष रहित अंगीकार कर लिया । परंतु बीजोरापाक प्रभु निमित्त बना के रेवती श्राविका भावे तो "करेमाणे करे" की अपेक्षा विहराय चुकी थी। तो उस ने कोई अल्प आयुष्य बांधा मालूम नहीं होता है, किंतु तीर्थंकर गोत्र बांधा मालूम होता है? __ इस वास्ते श्रीजैनधर्मकी स्याद्वादशैली समझे विना एकांत पक्ष खेंचना यह सम्यग्दृष्टि जीवका लक्षण नहीं है। ॥ इति ।। ५. मुहपत्ती बांधने से संमूर्छिम जीव की हिंसा होती है इस बाबत : ___ पांचवें प्रश्नोत्तर में जेठेने "वायुकाय के जीव की रक्षा वास्ते मुहपत्ती मुंह को बांधनी" ऐसे लिखा है, परंतु यह लिखना ठीक नहीं है । क्योंकि मुंह से निकलते भाषा के पुद्गल से तो वायुकाय के जीव हने नहीं जाते हैं, और यदि मुख से निकले पवन से वे हने जाते हैं, तो तुम ढूंढिये काष्ठकी, पाषाण की, या लोहे की, चाहे कैसी मुंहपत्ती बांधों, तो भी वायुकायके जीव हने बिना रहेंगे नहीं । क्योंकि मुख का पवन बाहिर निकले विना रहता नहीं है । यदि मुख का पवन बाहिर न निकले, पीछा मुख में ही जावे तो आदमी मर जावे । इस वास्ते यह निश्चय समझना, कि मुंहपत्ती जो है सो त्रस जीव की यत्ना वास्ते है । सो जब काम पडे तब मुखवस्त्रि का मुख आगे दे के बोलना । श्रीओघनियुक्ति में कहा है यत - संपाइमरयरेणुपमजणठ्ठावयंति मुहपोत्तिं इत्यादि __ अर्थ - संपातिम अर्थात् मांखी मछरादित्रस जीवों की रक्षा वास्ते जब बोले, तब १ देखो ठाणांगसूत्र तथा समवायांग सूत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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