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________________ २०२ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन कल्पना । उत्प्रेक्षालंकार वह है जहां हम उपमेय की उपमान के साथ तादात्म्य की संभावना करते हैं।' "मन्ये, शङ्क ध्रुवं, प्रायः, नूनम्" इत्यादि उत्प्रेक्षा वाचक शब्द हैं ---- मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो ननमित्येवमादयः । उत्प्रेक्षा व्यंज्यते शब्दैः इव शब्दोऽपि तादृशः ॥ उत्प्रेक्षा में एक पदार्थ में अन्य पदार्थ की सम्भावना की जाती है। यह सम्भावना प्रायः अतिशयार्थ या उत्कर्ष की सिद्धि के लिए की जाती है। यह उपमान एवं उपमेय के सम्बन्ध की कल्पना के कारण उत्प्रेक्षा सादृश्यमूलक भी है और सम्भावना का प्रयोजन अतिशय या उत्कर्ष साधन होने के कारण अतिशयमूलक भी है। भागवतकार ने भक्ति, दर्शन एवं ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों को उत्प्रेक्षा से पाठकों के माध्यम तक पहुंचाने का श्लाघनीय प्रयास किया है। उत्प्रेक्षा अतिशयोक्ति आदि की अपेक्षा भाव व्यंजना में अधिक साधिका होती है । उत्प्रेक्षा में अध्यवसान साध्य या सम्भावना के रूप में रहता है। इसमें अन्तर्वेदना की व्यंजना प्रधान होती है। श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में उत्प्रेक्षाओं का सौन्दर्य अद्भुत है। प्रत्येक स्तुति में भक्त अपनी अन्त:व्यथा को उत्प्रेक्षा के माध्यम से प्रभु तक पहुंचाने में समर्थ होता है। तो आइए भागवतकार के उत्प्रेक्षा सौन्दर्य का रसास्वादन करें। स्तुति के समय कुन्ती प्रभु से निवेदित करती है -- मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् । समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥' "मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता कालरूप परमेश्वर समझती हूं । संसार में समस्त प्राणी आपक में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परन्तु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं। “यहां कुन्ती श्रीकृष्ण में सर्वव्यापकत्व आदि गुणों की सम्भावना करती है । उपरोक्त श्लोक में "मन्ये" क्रिया पद के प्रयोग से उत्प्रेक्षा अलंकार स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाने त्रिगुणात्मकम् । तदनु त्वं प्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ।' भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म के बाद वसुदेवजी कारागार में स्तुति कर रहे हैं--"आपही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत् की १. काव्यप्रकाश १०.१३७ २. काव्यादर्श २.८ ३. श्रीमद्भागवत १.८.२८ ४. तत्रैव १०.३.१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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