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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार २०१ वैसी ही दशा हो जाती है जैसी दशा सूर्य के बिना आंखों कीतत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद् रवि विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ खाद्यान्न स्रोतमूलक उपमान की छटा अवलोकनीय है। चित्रकेतु कहता है---हे प्रभा ! आपके प्रति सकाम भावना से की हुई भक्ति अन्यान्य कर्मों के समान जन्म-मृत्यु रूप फल देने वाली नहीं होती है----जैसे भुने हुए बीजों से अंकुर नहीं निकलते-- कामधियस्त्वयि रचिता न परम रोहन्ति यथा करम्भबीजानि । ज्ञानात्मन्यगुणमये गुणगणतोऽस्यद्वन्द्वजालानि । यहां सकाम भागवतभक्ति की उपमा भुने हुए बीजों से दी गई है। बाल्य जीवों से भी भागवतकार ने सुन्दर-सुन्दर उपमानों का ग्रहण किया है । महाप्रास्थानिक वेला में वृत्रासुर द्वारा की गई स्तुति का एक श्लोक अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतरा क्षुधार्ताः । प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥ जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपने मां की बाट जोहते हैं, भूखे बछड़े अपनी मां का दूध पीने के लिए आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी पति से मिलने के लिए उत्कण्ठित रहती है, वैसे ही कमलनयन! आपके दर्शन के लिए मेरा मन छटपटा रहा है। यह श्लोक अद्भुत सौन्दर्य से समन्वित है। इस प्रकार भागवतकार ने विभिन्न स्रोतों से उपमानों को ग्रहण कर भाषा को खूब सजाया है। स्तुतियों में उपमाओं का कमनीय सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है। उत्प्रेक्षा भारतीय साहित्य शास्त्र में उत्प्रेक्षा को उपमा, रूपक आदि की तरह महत्त्वपूर्ण अलंकार माना गया है। भामह से लेकर आज तक के सभी आचार्यों ने सादृश्यमूलक अलंकारों में उत्प्रेक्षा का महत्त्व स्वीकार किया है। कुन्तक ने उत्प्रेक्षा को सार्वतिक रूप में शोभातिशायी स्वीकार किया है।' केशवमिश्र ने उसे 'अलंकार-सर्वस्व" कहकर अलंकारों में शीर्षस्थ माना है। कल्पनाशील कवि भावों को चमत्कृत और प्रेषणीय बनाने के हेतु उत्प्रेक्षालंकार का प्रयोग करता है। उत्प्रेक्षा का अर्थ है उत्कृष्ट रूप से की गई १. श्रीमद्भागवत १.११.९ २. तत्रैव ६.१६.३९ ३. कुन्तक, वक्रोक्ति जीवितम्, पृ० ४२९ ४. केशवमिश्र, अलंकार शेखर, पृ० ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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