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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार २०३ सृष्टि करते हैं, फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट की तरह जान पड़ते हैं।" यहां पर सांसारिक लोगों की दृष्टि में भगवान् अप्रविष्ट होते हुए भी प्रविष्ट के रूप में सम्भावित होते हैं । इस दार्शनिक तथ्य को उत्प्रेक्षा के माध्यम से बड़ा सुन्दर ढंग से उजागर किया गया है ।। __ जब सृष्टि प्रक्रिया होने लगती है, प्रभु संसार के विभिन्न पदार्थों का निर्माण करने लगते हैं, तब ऐसा लगता है कि मानो प्रभु भी अनुप्रविष्ट हो गए हैं, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते बल्कि पहले से ही विद्यमान रहते हैं। इस सर्वव्यापकता का प्रतिपादन अघोविन्यस्त उत्प्रेक्षालंकार में किया गया है--- संनिपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव । प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भवः ॥' एक उत्प्रेक्षा द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के अतिशोभन सौन्दर्य का दर्शन कीजिए स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽप्युरक्रमस्याधरशोणशोणिमा। दाध्यायमानः करकजसम्पुटे यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥' भगवान् श्रीकृष्ण के रक्तवर्ण के होठों का स्पर्श करके बजता हुआ शंख उनके करकमलों में ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लाल रंग के कमल पर बैठकर राजहंस उच्चस्वर से गान कर रहा हो। यहां कवि ने भगवान् के हाथों की रक्तकमल से और शंख की राजहंस से उत्प्रेक्षा की है। भगवान वाराह की दातों के नोक पर रखी हुई पर्वतादि मण्डित पृथिवी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दांतों पर पत्रयुक्त कमलिनी हो दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा । यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपधिनी ॥' इसी स्तुति के एक अन्य उत्प्रेक्षा के द्वारा भगवान् वाराह का सौंदर्य देखिए त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते । चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ दांतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित भगवान् वाराह का वेदमयविग्रह १. श्रीमद्भागवत १०.३.१६ २. तत्रैव १.११.२ ३. तत्रैव ३.१३.४० ४. तत्रैव ३.१३.४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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