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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार १९३ रीति को काव्य की आत्मा स्वीकार की हैं । अतः यह स्वाभाविक है कि रीति के विधायक गुण को वे काव्य में विशेष महत्त्व देते । यही कारण है कि उन्होंने काव्य सौन्दर्य का हेतु गुण को ही माना है । अलंकार काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं। स्पष्ट है कि गुण के अभाव में केवल अलंकार से काव्यत्व नहीं आ सकता । केवल गुणाधान से काव्यत्व का आरोप किया जा सकता है । गुणसहित सालंकृत पदावली ही ग्राह्य है। आचार्य उद्भट अलंकार को गुण के समान ही महत्त्व देने के पक्षपाती हैं। उनकी मान्यता है कि गुण और अलंकार दोनों ही सामान्य रूप से काव्य के उपकारक होते हैं । जयदेव काव्य लक्षण में अलंकार को एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में स्वीकृत करते हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि अलंकारहीन शब्दार्थ की कल्पना उष्णता रहित अग्नि के समान है । जैसे उष्णता में ही अग्नित्व है उसी प्रकार अलंकृत होने में काव्य का काव्यत्व है । अलंकार काव्य का नित्य धर्म है । वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापकाचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य सर्वस्व स्वीकार किया है। लोकोत्तर चमत्कारपूर्ण भङ्गीभणिति ही वक्रोक्ति है, जो शब्दार्थ साहित्य का उपकारक होता है, वक्रोक्ति अलंकार है और काव्य का प्राणभूत तत्त्व है । क्षेमेन्द्र ने "औचित्य' को काव्य का प्राण कहकर नवीन मार्ग की प्रतिष्ठापना की है। औचित्य का अर्थ है उचित का भाव । जिस वस्तु का जो अनुरूप है उसके साथ उसकी संघटना उचित मानी जाती है। उचित विन्यास होने पर ही अलंकार सच्चे अर्थ में अलंकार होते हैं जो काव्यश्री की वृद्धि करते हैं । ध्वनि सम्प्रदाय में अलंकार का निरूपण साङ्गोपाङ्ग हुआ है। इस सम्प्रदाय में किसी एक तत्त्व को महत्त्व देकर अन्य को उसी में अन्तर्भुक्त नहीं माना, बल्कि ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने पर भी गुण, रीति अलंकार को तटस्थभाव से काव्य में स्थान निरूपित किया है। आनन्दवर्द्धन के अनुसार रस को प्रकाशित करने वाले वाक्य-विशेष ही रूपक आदि अलंकार १. वामन, काव्यालंकार सूत्रवृत्ति १.२.६ २. तत्रैव ३.१.१ ३. तत्रैव ३.१.२ ४. जयदेव, चन्द्रालोक १७ ५. तत्रव १.८ ६. कुन्तक, वक्रोक्ति जीवितम् १.१० ७. क्षेमेन्द्र, औचित्य वि० चर्चा ७ ८. तत्रैव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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