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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १८९ उपकारों, अर्जुन के प्रति सातिशय प्रेमभाव का स्मरण करना, श्रीकृष्ण की मीठी बोली, धनुर्धरत्व आदि अनुभाव हैं। रोमांच, हर्ष, समर्पण आदि संचारिभाव हैं। यहां मधुररस की रमणीयता लोकोत्तर आह्लादजननसमर्थ गोपियों की स्तुति में मधुररस का सौन्दर्य अवलोकनीय हैं । गोपियां कहती हैंवीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् । दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः॥ का स्त्यङ्ग ते कलपदायतमूच्छितेन सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्रिलोक्याम् । त्रैलोक्यसौभगमिदं चनिरीक्ष्य रूपं यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ।' प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिस पर धुंघराली अलके झलक रही है, तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य विखेर रहे हैं, तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजाने वाली है, तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुस्कान से उल्लसित हो रही है, तुम्हारी ये दोनों भुजाएं, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यन्त उदार हैं, और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो सौन्दर्य विभूति लक्ष्मी जी का नित्य क्रीड़ास्थल है, देख कर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं। प्यारे श्याम सुन्दर ! तीनों लोकों में और कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुरपद एवं आरोह और अवरोह क्रम से विविध प्रकार की मुर्छनाओं से युक्त तुम्हारी वंशी की तान सुनकर तथा इस त्रिलोक सुन्दर मोहिनी मूत्ति को, जो अपनी एक बूंद सौन्दर्य से त्रिलोकी को सौन्दर्य का दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिण भी रोमांचित हो जाते हैंअपनी नेत्रों से निहारकर आर्य-मर्यादा से विचलित न हो जाए, लोकलज्जा को त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाए। यहां त्रैलोक्यसौभग श्रीकृष्ण मधुरभक्तिरस के आलम्बन हैं। उनकी सुन्दरता, वंशी की तान, भौहों का विलास इत्यादि उद्दीपन हैं । सौन्दर्य पर मुग्ध होना अनुभाव है तथा स्तम्भ, रोमांच इत्यादि संचारी भाव हैं। इन विभावादिकों की सहायता से प्रस्तुत प्रसंग में मधुररस की अभिव्यंजना हो रही है। १. श्रीमद्भागवत महापुराण १०१२९।३९-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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