SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १७९ अनुभाव के तीन भेद स्वीकृत हैं - सात्त्विक अनुभाव, मानसिक अनुभाव और कायिक अनुभाव । सत्त्व मन की एक अवस्था है जो एकाग्रता से उत्पन्न होता है । इस अवस्था में मन दूसरे के सुख और दुःख में तद्रूप हो जाता है । सात्त्विक अनुभाव — स्तम्भ, प्रलय, रोमांच, स्वेद, वैवर्ण्य वेपथु, अश्रु और वैस्वर्य । प्रत्येक रस के अलग-अलग अनुभाव होते हैं, जिसका विवेचन आगे किया जाएगा । व्यभिचारी भाव व्यभिचारी एवं संचारी शब्द समानार्थक हैं । वि एवं अभि उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक चर् धातु से कर्त्ता में " णिनि" प्रत्यय करने पर "व्यभिचारी" शब्द की निष्पत्ति होती है । सागर में लहरों के तुल्य स्थायी भाव में उत्पन्न तथा विलीन होकर जो निर्वेद आदि भाव रति आदि स्थायी भाव को विविध प्रकार से पुष्ट करते हैं उसे रसरूपता की ओर ले जाते हैं वे व्यभिचारीभाव कहलाते हैं ।" विशेषेण आभिमुख्येन च स्थायिनं प्रति चरन्ति " अर्थात् जो विशेष रूप से स्थायी भाव के अनुकूलता से चरण करते हैं वे व्यभिचारि भाव हैं । ये स्थायी भाव के गति का संचालन करते हैं इसलिए ये संचारिभाव कहे जाते हैं । इस प्रकार संचारीभाव या व्यभिचारीभाव क्षणिक होते हुए भी रसदशा तक पहुंचाने में स्थायी भावों के विशेष रूप से उपकारक होते हैं । इनकी निम्नतम संख्या ३३ बतायी गयी है, जो इस प्रकार है - निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, प्रबोध, क्रोध, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क ।" उपरोक्त ३३ संख्याओं के अतिरिक्त नाट्यदर्पणकार ने तृष्णा, मुदिता, मैत्री, श्रद्धा, दया, उपेक्षा आदि को भी व्यभिचारी भावों की पंक्ति में समाहित किया है । रसों की संख्या नाट्य शास्त्र ६.१५-१७, काव्यप्रकाश ४.२९ और भाव प्रकाश १. दशरूपक ४.५ २. दशरूपक ४.७ ३. भक्तिरसामृत सिन्धु - दक्षिण विभाग ४.१ ४. तत्रैव ४.२ ५. काव्य प्रकाश ४.३१-३४, दशरूपक ४.८, शास्त्र ७.९३, नाट्यदर्पण ३.१८२ Jain Education International साहित्यदर्पण ३. १४१ नाट्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy