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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन कालीन वासना से अन्तर्लीन रति हास आदि स्थायी भावों के उद्बोधक हैं, वे ही काव्य एवं नाटकों के अन्तर्गत विभाव कहलाते हैं।' लोक में विभाव को कारण कहा जाता है। विभाव के सर्वसम्मत दो भेद स्वीकृत किए गये हैं-आलम्बन और उद्दीपन । जिसके आलम्बन करके रस की उत्पत्ति होती है उसे आलम्बन-विभाव कहते हैं, तथा जिसके द्वारा रस उद्दीप्त होता है उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं। यथा सीता को देखकर राम के मन में और राम को देखकर सीता के मन में रति की उत्पत्ति होती है और दोनों को देखकर सामाजिक के भीतर रस की अभिव्यक्ति होती है इसलिए सीताराम शृंगार रस के आलम्बन विभाव कहलाते हैं। चांदनी, उद्यान, एकान्त स्थान आदि के द्वारा उस रति का उद्दीपन होता है। इसलिए उनको शृंगार रस का उद्दीपन विभाव कहा जाता है। प्रत्येक रस के आलम्बन एवं उद्दीपन विभाव अलग-अलग होते हैं । उन सबों की चर्चा आगे की जायेगी। अनुभाव अनुभाव आन्तर रसानुभूति की बाह्य अभिव्यंजना के साधन हैं जिसमें शारीरिक व्यापार की प्रधानता रहती है। नट कृत्रिम रूप से अनुभावों का अभिनय करता है परन्तु अनुकार्य राम आदि की अंतस्थ अनुभूति की बाह्य अभिव्यक्ति इन साधनों द्वारा होती है। अनु पश्चाद्भवन्तीति अनुभावाः अर्थात् वे विभाव के बाद में कार्य होते हैं इसलिए उन्हें अनुभाव कहते हैं । अपने-अपने आलम्बन या उद्दीपन कारणों से सीता राम आदि के भीतर उद्बुद्ध रति आदि स्थायी भाव को बाह्य रूप में जो प्रकाशित करता है, वह रत्यादि का कार्य काव्य और नाट्य में अनुभाव कहलाता है। धनंजय के अनुसार भाव को सूचित करने वाले विकास को अनुभाव कहते हैं। यहीं पर अनुभाव को काव्य और नाट्य में कारण के रूप में चित्रित किया है, कार्य के रूप में नहीं, परन्तु मम्मट, विश्वनाथ, पण्डितराजजगन्नाथ आदि आचार्य अनुभाव को कार्य के रूप में ही निरूपित करते हैं । श्रीलरूपगोस्वामी के अनुसार अनुभाव चित्त में स्थित मुख्य भावों के बोधक होते हैं। वे प्रायः बाह्य विक्रिया रूप होते हैं और "उद्भासुर" नाम से कहे गये हैं। १. साहित्यदर्पण ३.२९ २. साहित्यदर्पण ३.१३२ ३. दशरूपक ४.४ ४. तत्रैव ४.४ पर वत्ति ५. भक्ति रसामृत सिन्धु, दक्षिण विभाग, २.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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