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________________ १७२ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन होती है। जानने की इच्छा या ज्ञानेप्सा को जिज्ञासा कहते हैं। सृष्टि, जीव तथा ब्रह्म इन तीनों से सम्बद्ध जिज्ञासा या किसी अन्य प्रकार की जिज्ञासा यत्किचित् स्तुतियों में प्राप्त होती है। देवहूति कृत कपिल स्तुति (३.२५) रहुगणकृत भगवत् स्तुति (५.१२) एवं याज्ञवल्क्य कृत सूर्य स्तुति में विभिन्न प्रकार की ज्ञानेप्सा उद्धत की गई है। संसार के घनाच्छन्न विषय लालसा रूपी भयंकर कालरात्री में भ्रमित देवहूति अपने अज्ञानापास्तक पुत्र स्वरूप भगवान् कपिल से प्रार्थना करती है-- तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् । जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥' आप अपने भक्तों के संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान हैं। मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागत वत्सल की शरण में आयी हूं। आप भागवत धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं । मैं आपको प्रणाम करती हूं। राजा रहुगण मुक्ति के लिए भगवान् जडभरत से जिज्ञासा करते हैं । रहुगण स्तुति करते हुए कहते हैं--- तस्माद्भवन्तं मम संशयार्थ प्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम् । आध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्तमाख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥' प्रभो! हम आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊंगा, पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्मयोग का उपदेश दिया है उसी को सरल कर समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है। ७. प्रेमभाव प्रियतम के लिए जीवन धारण करना, उसी की खुशी में खुशी होना, उसी के दुःख में दुःख होना प्रेम का लक्षण है। परमभागवत नारदजी के शब्दों में-'अतस्मिस्तत्सुखसुखित्वम्' अर्थात् प्रियतम के सुख से सुखी होना तथा उसी के दुःख में दुःखी होना। सारे कर्मों को उसी में अर्पित कर देना तथा उसके तनिक भी विस्मरण सह्य नहीं होना प्रेम लक्षण है-नारदस्तु तपिताखिलाचारितातद्विरमणे परमव्याकुलतेति ।' व्रज की गोपियों की स्तुति में इसी भाव की प्रधानता है। प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगंश्रीनिकेतम् । फणिफणापितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धिहच्छयम् ॥ १. श्रीमद्भागवत ३.२५.१: २. तत्रैव ५.१२.३ ३. नारद भक्ति सूत्र १९ ४. श्रीमद्भागवत १०.३१.७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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