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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १७३ हे प्रभो ! आप शरणागतों के पापकर्शक हैं, सौन्दर्य के आगार तुम्हारे चरणकमल लक्ष्मीजी द्वारा सेवित हैं। उन्हीं चरणकमलों को नागफणों पर तुमने रखा, अब उन्हें ही हमारे वक्षःस्थल पर रखकर मेरे हृदय की ज्वाला शान्त कर दो । श्रीकृष्ण की भावना में डूबी हुई गोपियां यमुनाजी के पावन पुलिन पर रमणरेति में मिलकर गाने लगती हैं । ' यह गोपीगीत प्रेमरस से प्रश्रविणी अनवरत प्रवाहित है । करें- सराबोर है । सर्वत्र प्रेम की पवित्र एक प्रेमरस भरा फल का आस्वादन रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् । बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ २ प्यारे ! एकान्त में तुम मिलकर प्रेम भाव को जगाने वाली बातें करते थे, ठिठोली करके हमें छेड़ते थे, तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे और हम देखती थी तुम्हारे उस वक्षस्थल को जिस पर लक्ष्मीजी नित्य निवास करती हैं । तब से अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है। ८. उपालम्भ भाव श्रीमद्भागवतीय स्तुतियों में उपालम्भ भाव की भी विद्यमानता है । उपालम्भ का अर्थ “उलाहना" है । भक्त भक्तिभावित चित से, प्रभु के गुणों के प्रति मुग्ध होकर उन्हें विभिन्न प्रकार से उपालम्भ देता है । जब भक्त विनयपूर्वक निवेदन करते-करते क्लान्त हो जाता है और अपने प्रभु को अपनी ओर आकृष्ट कर पाने में अपने आपको असमर्थ पाता है तो उन्हें उपालम्भ देकर उनके चित्त को द्रवीभूत करना चाहता है । वह प्रेम और स्नेह के वशीभूत हो आराध्य को व्यंग्यात्मक उपालम्भ देता है । जिस प्रकार चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है उसी प्रकार भक्त भी अपने विभिन्न प्रकार के हाव-भाव से भगवान् को अपने ओर आकृष्ट करना चाहता है । जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्न्तध्यान हो जाते हैं तब विरहव्यथिता गोपियां विभिन्न प्रकार से उपालम्भ देकर विलाप करने लगती हैं। पहले तो वे मधुर-मधुर विनय से पूर्ण उद्गारों के द्वारा भगवान् को पाना चाहती है लेकिन अपने कार्य की असफलता देखकर कपटी आदि विभिन्न प्रकार के १. श्रीमद्भागवत १०.३१.१-१७ २. तत्रैव १०.३१.१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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