SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १६५ इस प्रकार काव्य के उत्कर्ष भूत सभी गुण , रीति, अलंकार, छन्द एवं चित्रात्मकता आदि स्तुतियों में समाहित हैं। स्तुतियों की भावसम्पत्ति भावविवेचन - संसार के सुख दुःखात्मानुभवों की चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति का नाम काव्य है । कवि जीवन में अनुभूत विभिन्न प्रकार के भावों को कल्पनादि के साथ अनुस्यूत कर अपने काव्य में अभिव्यंजित करता है। किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति विशेष-विशेष अवस्थाओं में जो मानसिक स्थिति होती है उसे भाव कहते हैं और जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति यह भाव उत्पन्न होता है, वह वस्तु या व्यक्ति विभाव कहलाता है। भाव एवं विभाव का यह क्रम प्रत्येक काव्य में अनवरत चलता रहता है। अलंकार शास्त्र में सुख-दुःख आदि स्थितियों के ज्ञापन को भाव कहा गया है । धनंजय ने आन्तरिक स्थितियों के ज्ञापन को भाव शब्द से अभिहित किया है।' काव्य प्रकाशकार ने देवादि विषयक रति आदि स्थायीभावों का वर्णन भावध्वनि के अन्तर्गत किया है। अतः स्पष्ट है कि देवादि विषयक रति और उद्बुद्ध मात्र स्थायी भाव कहलाता है। जब संवेगात्मक प्रतीति बौद्धिक प्रतीति को बांधकर अनुभूति के रूप में प्रवाहित होती है तब भाव का जन्म होता है। श्रीमद्भागवतीय स्तुतियों में अनेक प्रकार के भावों से भावित होकर भक्तगण अपने उपास्य की स्तुति करते हैं। कोई जिज्ञासा भाव से कोई प्रेमभाव से, कोई आर्तभाव, सख्यभाव एवं दास्यभाव से प्रेरित होकर स्तुति करता है । नारद भक्तिसूत्र में जो ग्यारह प्रकार के भक्तिमार्ग बताये गये हैं वे वस्तुतः भाव ही हैं । ग्यारह प्रकार के भक्तों की विभाजन उनके भावना के आधार पर ही संभव है। श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अधोविन्यस्त भाव परिलक्षित होते १. आर्त भाव त्रिविध कष्ट या सांसारिक विपत्ति से त्रस्त जीव-भक्त, जब उसकी अपनी शक्ति काम नहीं आती प्राणसंकट या धर्मसंकट उपस्थित हो जाता तो वह सर्वात्मना प्रभु के चरणों में समर्पित होकर रक्षा की याचना करता है-पुकारने लगता है अपने प्रभु को, नाथ ! मेरी रक्षा करो प्रभु ! रक्षा १. दशरूपक ४.४ २. नारदभक्तिसूत्र ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy