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________________ १६६ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन करो। अर्जुन, उत्तरा, जीव, गजेन्द्र, कौरवगण, गोपीगण, नागपत्नियां, राजगण आदि की स्तुति में आर्तभाव की प्रधानता है। जब संसार की भयंकरता से मातृगर्भस्थ शिशु सर्वज्ञ जीव भयभीत हो जाता है तब उसी परमनिकेतन की छाया में उपपन्न होता जिसने उसे इस घोर बन्धन में डाला __तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त नानातनो विचलच्चरणारविन्दम् । ... सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे येनेदृशी गतिरदWसतोऽनुरूपा॥ ___ मैं बड़ा अधम हूं, भगवान् ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखाई है वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत् की रक्षा के लिए ही अनेक रूपों को धारण करते हैं, अतः मैं भी भूतल विचरण करने वाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूं। सब तरह से जब थक जाता है, अब उसे कोई रखवाला नहीं दिखाई पड़ता तो अंततोगत्वा प्राक्तन सस्कारवश वह गजेन्द्र "न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा" की स्तुति करने लगता है। असह्य विष की ज्वाला एवं उसकी भयंकरता से आकुल होकर सम्पूर्ण प्रजा एवं प्रजापतिगण भगवान् शिव के चरण शरण ग्रहण कर विष पानार्थ स्तुति करते हैं - देवताओं के आराध्यदेव महादेव आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरण में आये हैं। त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस भयंकर महाविष से आप हमारी रक्षा कीजिए। इस प्रकार श्रीमद्भागवत की बहुत स्तुतियां आर्तभाव प्रधान है। इन स्तुतियों में हृण्मर्म की वेदना शब्दों के रूप में प्रस्फुटित हो जाती है। प्राण रक्षा की आतुरता में भक्त प्रभुपादपङ्कजों में अपने को सर्वात्मना समर्पित कर निर्भय हो जाता है। शेष कार्य-विपत्तियों से उसकी रक्षा का भार उस सर्जनहार का कर्तव्य बन जाता है । २. दैन्यभाव भक्ति के क्षेत्र में दीनभाव का प्रदर्शन भी आवश्यक है। भक्त लौकिक साधनविहीन होकर भगवान् के समक्ष आत्मनिवेदन करते हुए १. श्रीमद्भागवत १.८.९ २. तत्रैव ३.१.१२ ३. तत्रैव ८.३.८ ४. तत्रैव ८.७.२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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