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________________ १६४ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य जिह्वार्कनेत्रभृकुटीरभसोनदंष्ट्रात् । आन्त्रस्रजः क्षतजकेशरङ्कुकर्णान्निर्हादभीतदिगभादरिभिन्नखाग्रात् ॥' परमात्मन् ! आपका मुख बडा भयावना है । आपकी जीह्वा लपलपा रही है। आंखें सूर्य के समान हैं। भौहें चढ़ी हुई हैं, बड़ी पैनी दाढ़े हैं। आंतों की माला, खून से लथपथ गर्दन के बाल, बर्छ की तरह सीधे खड़े कान, एवं दिग्गजों को भी भयभीत कर देने वाला सिंहनाद एवं शत्र ओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूं। इस श्लोक में भगवान् नसिंह की भयंकरता का चित्र पाठक के सामने स्पष्ट अंकित हो जाता है । भगवान् के ऐसे स्वरूप का दर्शन कर एक तरफ पापी, विधर्मी, अन्यायी पीपलकिसलयों की तरह थर-थर कापने लगते हैं तो दूसरे तरफ भक्त अपने भगवान् के चरणों में सब कुछ समर्पित कर अभयत्व एवं अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। स्वभाविक अभिव्यक्ति विचक्षण कवियों की मर्मगतवेदना शब्द के माध्यम से स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त हो जाती है-उसी को उत्तम काव्य की कोटि में परिगणित किया जाता है। स्तुतियों में स्वाभाविक अभिव्यंजना की सर्वत्र प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। जब गजेन्द्र पूर्णत : ग्राह से ग्रसित है, तब प्राक्तन संस्कारवश उसके हृदय से शब्द मणियों की माला स्वत: निर्मित होकर प्रभुपादपंकजों में समपित हो जाती है --- न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययसंभवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ।। उपर्युक्त श्लोक में प्रभु की सर्वव्यापकता का वर्णन कितना स्वाभाविक रीति से किया गया है इसे कोई भक्त ही समझ सकता है। __तृष्णा आदि रागादिकों एवं संसारचक्र वहन करने वाले गहादिकों को त्यागकर एकमात्र प्रभु नृसिंह चरणों में सर्वात्मना समर्पित हो जाने के लिये राक्षस बालकों को भक्तप्रवर प्रह्लाद प्रेरित करते हैं। सहज एवं सरल शब्दों में इस आशय का निरूपण भगवान् वेदव्यास कर रहे हैं । तस्माद्रजोरागविषादमन्युमानस्पृहाभयदैन्याधिमूलम् । हित्वा गृहं संसृति चक्रवालं नृसिंहपादं भजताकुतोभयमिति ॥ इस प्रकार स्तुतियों में सर्वत्र स्वाभाविकता का साम्राज्य व्याप्त है। १. श्रीमद्भागवत ७.९.३५ २. तत्रैव ८.३.८ ३. तत्रैव ५.१८.१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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