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________________ भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण ११३ स्तुति है । भगवत्कृपा प्राप्त्यर्थं ये भक्तिमति नारियां स्तुति करती हैं । प्रभो ! आपका यह अवतार दुष्टों को दण्ड देने के लिए हुआ है। इसलिए इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और मित्र एक समान है, इसलिए आप किसी को दण्ड देते हैं तो वह उसके पापों का प्रायश्चित करने और उसका परम कल्याण के लिए ही होता है । आपने हम लोगों पर बड़ा अनुग्रह किया । यह तो आपकी महती कृपा ही है क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह नही, यदि अपराधी ही नहीं होता तो इसे सर्प योनि ही क्यों मिलती । इसलिए हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं । ' मैं ही इन तीनों लोकों का स्वामी हूं यह मानकर इन्द्र महाभिमानी बन बैठे थे । यज्ञ विध्वंस के बाद कुपित होकर वे ब्रज में मूसलाधार वर्षा करने लगे । भगवान् कृष्ण ने गोर्वधन धारण कर खेल-खेल में संपूर्ण ब्रज वासियों को बचा लिया । इन्द्र का मद भंग हो गया । एकांत में भगवान् के शरणागत हो इन्द्र स्तुति करने लगे - भगवन् ! आपका स्वरूप परम शांत, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध सत्त्वमय है । यह गुणों के प्रवाह से प्रतीत होने वाला प्रपंच केवल मायामय है, क्योंकि आपका स्वरूप न जानने के कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है । * इन्द्रस्तुति से प्रसन्न हो भगवान् जब हंसकर इन्द्र को अभय प्रदान कर रहे थे तभी मनस्विनी कामधेनु हाथ जोड़कर आई और भगवान् की स्तुति करने लगी ।" कामधेनु कहती है कृष्ण-कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसंभव । भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत ।" जब नन्द बाबा ने यमुना जल में रात्रि में स्नानार्थ प्रवेश किया तब वरुण के सेवक उन्हें बांधकर वरुण लोक में ले गये । भगवान् श्रीकृष्ण नन्द बाबा को खोजते खोजते लोकपाल वरुण के यहां पधारे । भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर वरुण का रोम-रोम खिल उठा । तदनंतर वे भगवत्स्तुति करने १. श्रीमद्भागवत १०।१६।३३-५३ २. तत्रैव १०।१६ । ३३-३४ ३. तत्रैव १०।२७।४-१२ ४. तत्रैव १०।२७।४ ५. तंत्र व १०/७/१९-२१ ६. तत्रैव १०।२७।१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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