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________________ परिशिष्ट-१ : ४१७ (१) पिण्डस्थ ध्यान पिंड का अर्थ है - शरीर । शरीर के विविध अवयवों को केन्द्र बनाकर चित्त को एकाग्र करना पिण्डस्य ध्यान है। पिंडस्थ-पिंड में स्थित होना । शरीर बहुत स्थूल है। शरीर से हमारा परिचय भी बहुत है। और यह भी कहा जा सकता है, बहुत कम लोग शरीर से सम्यक् परिचित होंगे। शरीरशास्त्रियों से भी वह अब तक पूर्णतया विज्ञात नहीं हुआ है और हो सकेगा इसमें भी संदेह है। योगियों ने अपने आन्तरिक स्थिरीकरण और अनुभवों से जैसा उसे जाना है वह उन लोगों के लिए अति आश्चर्यजनक है। किन्तु हमें यहां स्थूल और सूक्ष्म विज्ञात और अविज्ञात दोनों ही आलम्बनों और उसके परिणामों पर ध्यान देना है। स्थूल दृष्टि से केन्द्रीकरण के माध्यम हैं (१) सिर (२) भ्रू (३) तालू (४) ललाट (५) मुंह (६) नेत्र (७) कान (८) नासाग्र (६) हृदय (१०) नाभि । कुछ अन्य स्थानों का निर्देश भी मिलता है जैसे कंठकूप, जिह्वाग्र, जिह्वामूल जिह्वामध्य, 'त' के उच्चारण का स्थान मेरुदण्ड आदि । शरीर के इन स्थानों में चेतना की विशिष्ट अभिव्यक्ति होती हैं। एकाग्रता से उनका जागरण होता है। ये चैतन्य केन्द्र हैं। योग में जो षट् चक्र का उल्लेख है, वे विशिष्ट चेतना-केन्द्र हैं । ये चक्र स्थूल शरीर में नहीं, किन्तु सूक्ष्म शरीर में है । मूलाधार चक्र सबसे निम्न है और सहस्रार सबसे ऊपर। शक्ति का प्रवाह मूलाधार में केन्द्रित है। कुंडलिनी शक्ति यहीं विराजमान है। यह सुषुप्त है। साधना का व्यक्त या अव्यक्त कार्य इस महाशक्ति को सहस्रार में ले जाने का है। यह नीचे से जब ऊपर की ओर उठती है तब एक-एक चक्र में से होकर प्रवाहित होती है। अनुभवी साधकों ने इसका कहीं-कहीं कुछ वर्णन किया है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भी इसकी चर्चा की है। उनका कहना है कि कुंडलिनी के जागृत हुए बिना चेतना नहीं आती । कुंडलिनी को चेतन करना आवश्यक है । जब यह चक्रों के मध्य से होकर ऊपर जाती है, तब जो अनुभव होता है, वह इस प्रकार है-'मनुष्य के मन की स्वाभाविक गति नीचे की तीन भूमिकाओं (गुह्य, लिंग और नाभि) में रहती है। जिससे वह भोग-विलास, खाने-पीने आदि की वृत्तियों से ऊपर नहीं उठ पाता। मन इन तीनों भूमिकाओं को पार कर हृदय-भूमि तक आ जाय तो उसे ज्योति-दर्शन होता है। परन्तु यहां से भी पुनः नीचे आने की संभा. वना रहती है। हृदय से ऊपर विशुद्धिचक्र तक यदि मन की गति हो जाय तो उसे ईश्वरीय विषय की चर्चा के सिवाय दूसरी बातों में रस नहीं आता। उस समय कोई अन्य इच्छा नहीं रहती। विषयी लोगों के देखते ही डर से छिप कर बैठ जाता है। सम्बन्धी जनों से भी मिलने का मन नहीं होता। उनको देखते ही दम घुटने लग जाता था। कुंडलिनी कंठचक्र तक जाने के बाद भी नीचे की भूमि पर उतरने की संभावना बनी रहती है। साधक को इस समय सावधान रहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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