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४१८ : सम्बोधि
कण्ठचत्र को छोड़कर यदि एक बार भृकुटी - आज्ञा चक्र तक आ जाय तब फिर पतन होने का भय नहीं रहता । वहां पर परमात्मा का दर्शन होकर निरन्तर समाधि - सुख की प्राप्ति होती है । उस भूमि और सहस्रार के मध्य में केवल एक कांच के समान पारदर्शक पर्दा मात्र रहता है । वहां परमात्मा इतने समीप रहता है कि हम परमात्मा के साथ एक रूप से प्रतीत होते हैं, किन्तु एकत्व प्राप्त नहीं होता है। यहां से यदि मन नीचे उतरे तो कंठ या हृदय से भी नीचे नहीं उतरता। इक्कीस दिन तक निरन्तर समाधि अवस्था में रहने से यह पर्दा सर्वथा नष्ट हो जाता है, और जीवात्मा परमात्मा के साथ एक रूप हो जाता है । यह सहस्रार कमल ही सप्तम भूमि है । "
इससे हम सहज अंकन कर सकते हैं कि साधना द्वारा व्यक्ति कैसे अपना सम्पूर्ण विकास साध लेता है । यह शक्ति सबमें है । किन्तु अधिकांश व्यक्ति नीचे की स्थिति में ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं । ऊर्जा का केन्द्र मूलाधार चक्र सुप्तका सुप्त रह जाता है। शक्ति से परिपूर्ण होकर मनुष्य का अवतरण होता है और वह खाली होकर शक्ति शून्य होकर पुनः जन्म लेने के लिए चल पड़ता है। ऊर्जा का व्यय व्यर्थ के कार्यों में कर सार्थक से वंचित रह जाता है । साधना का अर्थ है - ऊर्जा का सम्यक उपयोग करना । वह बाहर के अर्थहीन भोग, विलास, घृणा, हिंसा, क्रोध, अहंकार आदि में शक्ति को योजित न होने देकर निर्माण में योजित करती है, मूलाधार से सहस्रार में स्थापित कर देती है । चक्रों पर ध्यान का यही उद्देश्य है । पिंडस्थ ध्यान के प्रयोग नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो साधकों द्वारा निर्दिष्ट हैं
(१) मूलाधार चक्र भगाकृति है । इस चक्र में स्वयंभूलिङ्ग में तेजोरूपा कुंडलिनी शक्ति साढ़े तीन फेरे लपेटे हुए अधिष्ठित है । इस ज्योतिर्मयी शक्ति का जीव रूप में ध्यान करने से चित्त लय होता है, एवं मुक्ति मिल जाती है ।
(२) स्वाधिष्ठान चक्र को अवालांकुर जैसे उड्डीयान नामक पीठ (आसन) पर कुण्डलिनी शक्ति का चिन्तन करने से भी मनोलय होगा एवं जगत के आकर्षण की शक्ति आयेगी ।
(३) मणिपुर चक्र में पांच फेरे लगाए बिजली जैसे रंग की चित्स्वरूपा भूजंगी शक्ति का ध्यान करने से अवश्य ही साधक सर्वसिद्धि पाता है ।
(४) अनाहत चक्र में ज्योति स्वरूप हंस का ध्यान करने से भी चित्त लय हो जाता है एवं जगत् वशीभूत होता है ।
(५) विशुद्ध चक्र में निर्मल ज्योति का ध्यान करने से सर्व सिद्धियां मिलती
हैं ।
१. श्रीरामकृष्ण, लीलामृत भाग २, पृष्ठ ३११, ३१२ ।
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