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________________ ४१६ : सम्बोधि स्वभाव की खोज में उत्सुक साधक को इन दोनों असद् ध्यानों से सतत सावधान रहना चाहिए। उसे यह जान लेना चाहिए कि ये आत्म-प्रगति में किसी तरह साधक नहीं, बाधक हैं। अपनी वृत्तियों पर सतत प्रहरी बनकर निरीक्षण करते रहना साधक का परम धर्म है। “अन्ते या मतिः सा गतिः" जैसे विचार करते हो वैसा ही बन जाते हो। विश्व का नियम है, जो जैसा सोचता है, करता है, बोलता है वह सब लौटकर पुनः उसमें ही प्रविष्ट हो जाता है। सब गति वर्तुलाकार है। इसलिए सन्तों ने सब तरह से मनुष्य को सावधान करने का प्रयास किया है। तुम अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम अपनी क्रिया के प्रति जागरूक बनो । ऐसा कोई आचरण, व्यवहार मत करो जो अन्ततः तुम्हारी ही गर्दन काटने वाला हो। प्रशस्त ध्यान है-धर्म और शुक्ल । अप्रशस्त से मुक्त होने का अर्थ है प्रशस्त का द्वार खोलना । प्रशस्त खुला है, अनावृत है। आवरण है तो अप्रशस्त का है। जैसे ही व्यक्ति उसे छोड़ता है, प्रशस्त प्रगट हो जाता है। अप्रशस्तता अस्वाभाविक है, वह आगन्तुक है। अतिथि नियतवास कैसे कर सकता है ? किन्तु यह सब सम्भव है जब हमें यह पता हो कि यह अतिथि है या शरण्य है। हम यदि उसे अपना ही मान लेते हैं तब असम्भव है। प्रशस्त सहज है, स्वाभाविक है स्वास्थ्य की भांति। ___ अपने घर में आना धर्म है। यात्रा का मुख स्रोत के अभिमुख होता है तब केन्द्र पर पहुंचा जाता है। चेतना का चेतना में लौट आना धर्म का परम पवित्र और सर्वोत्तम पद है। 'अप्पा अप्पम्मि रओ'-आत्मा में रमण करना-यह शुक्ल-ध्यान का अन्तिम चरण है। यात्रा की यहां समाप्ति हो जाती है। किन्तु यह सहज प्राप्य नहीं है। इसलिए आचार्यों ने कहा- साधक स्थल से सूक्ष्म और लक्ष्य से अलक्ष्य की दिशा में अग्रसर हो सालम्बन और निरालम्बन के विभाजन का यही कारण है। सालम्ब ध्यान में ध्याता और ध्येय का द्वैत बना रहता है। जो आलम्बन है ध्याता उस पर अपने चित्त को एकाग्र करता है। विकेन्द्रित मन को सब ओर से समेट कर एक दिशामुखी बना लेना ही इसका कार्य है। जब मन इसमें निष्णात हो जाता है तब निविचार, विचारशून्य-अमन No Miud की दिशा में कठिनाई नहीं होती। इसलिये इसका पूर्वाभ्यास सामान्य साधकों की स्थिति को दृष्टिगत रखकर उपयोगी समझा है। इनके अनेक भेद हो सकते हैं । साधारण तथा ध्यानसाधकों ने ध्यान को चार भागों में विभक्त किया है (१) पिण्डस्थ ध्यान (३) रूपस्थ ध्यान (२) पदस्थ ध्यान (४) रूपातीत ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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