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________________ के तेरहवें शिलालेख में लिखा हुआ है कि सब पाषंड मिल-जुलकर रहें। नियुक्तिकार ने पाषंड को मुनि का पर्यायवाची माना है। शब्दों के अर्थों में काल-क्रम से अपकर्ष और उत्कर्ष होता रहता है। कितना गम्भीर काम है प्राचीन शब्दों के अर्थ को समझना। थोड़े ज्ञान द्वारा वह समझ में नहीं आ सकता। मैं मानता हूं, जो बौद्ध और वैदिक साहित्य नहीं पढ़ता, वह जैन आगमों का अर्थ ठीक नहीं लगा सकता। तत्कालीन लौकिक साहित्य पढ़े बिना धर्म पूरा पकड़ में नहीं आता। दशवैकालिक सूत्र में बावन अनाचार आते हैं। उनमें एक शब्द 'धूवनेत्ति' है। धूवनेत्ति का अर्थ प्राचीन आचार्यों ने धूप खेना किया है। आज का शोधक यह नहीं मानता कि प्राचीन व्याख्याकारों ने जो लिख दिया, वही ठीक है। उनके सामने सामग्री की बड़ी कठिनाई थी। आज हर शब्द की शल्य-चिकित्सा की जाती है। धूवनेत्ति में धूवन का अर्थ धूपन है तो फिर इति शब्द क्यों? खूब ध्यान दिया। फिर चरक पढ़ा। उसमें स्वस्थवृत्त प्रकरण में दशवैकालिक में वर्णित अनाचार से सम्बन्धित बहुत सारी बातें मिलती हैं। उसमें धूमनेत्र का अर्थ धूम्रपान की नली किया है। तब ध्यान गया कि धूवनेत्ति का अर्थ धूमनेत्र होना चाहिए। फिर तो उत्तराध्ययन सूत्र में भी 'धूमनेत्त' शब्द मिल गया। सूत्रकृतांग में उसका समर्थन मिल गया कि मुनि को धूम्रपान नहीं करना चाहिए। बौद्ध साहित्य में मिलता है कि भिक्षु को स्वर्ण का धूमनेत्र नहीं रखना चाहिए। आयुर्वेद के ग्रन्थ और बौद्ध साहित्य का अध्ययन करने से ठीक अर्थ लग गया। काल-क्रम से शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। १५२ , धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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