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________________ ७० / अश्रुवीणा चूर्णि पृ. 246 पर निर्दिष्ट है वज्झ अब्भंतरातो गंथातो णिग्गतो निग्गंथो।अर्थात् जो बाह्य और अभ्यन्तर बन्धन से विनिर्मुक्त है वह निर्ग्रन्थ है। भागवतपुराण में आत्मलीन मुनि को निर्ग्रन्थ कहा गया है-आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरूक्रमे। __ भागवतपुराण 1.7.4 धवलाकार के अनुसार जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित है वह निर्ग्रन्थ है बज्झ ब्भंतरपरिग्गह परिच्चाओ णिग्गंथ- धवला-9.4.1.67,323.7 बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह; आसक्ति, ममत्व आदि से रहित मुनियों के अधिपति-स्वामी। अधिपति-स्वामी, शासक, राजा, प्रभु, प्रधान, अधिप और अधिपति शब्द एकार्थक हैं जो प्राय: समास में प्रयुक्त होते हैं। पश्चिमः तीर्थनाथः - अंतिमतीर्थकर पश्चिम शब्द यहाँ आखिर, अन्तिम, चरम आदि का वाचक है। अन्तो जघन्यं चरममन्त्य पाश्चात्यपश्चिमम्। अमरकोश 3.1.81 पश्च शब्द से डिमच् प्रत्यय हुआ है। अग्रादिपश्चाड्डिमच् (वा. 4.3.23) से डिमच् प्रत्यय हुआ है। तीर्थनाथः - तीर्थ के नाथ, तीर्थ स्वामी, तीर्थंकर। तीर्थ जिसके द्वारा तरा जाए वह तीर्थ है। जो तारणे में समर्थ हो वह तीर्थ है। तृ प्लवनतरणयोः धातु से थक् प्रत्यय हुआ है । उणादि सूत्र पातृ तुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक् (2.7) से यहाँ थक् हुआ। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय तीर्थ का स्वामी है-अथवा जो तीर्थ-गणधरों के स्वामी हैं; अथवा जो श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ (धर्म संघ) का स्वामी है। वह तीर्थनाथ है। भगवान महावीर का विशेषण है। कुलिश कठिनः-वज्र के समान कठोर अथवा वज्र से भी कठोर । यहाँ दोनों अर्थ ग्राह्य हैं । प्रथम में उपमा, द्वितीय में व्यतिरेक अलंकार की उपस्थिति मानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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