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________________ अश्रुवीणा / ७१ जाएगी। जहाँ पर उपमेय उपमान से अधिक गुण वाला हो जाए उसे व्यतिरेक कहते हैं। उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः काव्यप्रकाश 10.159 बन्धहेतुं सहजसुलभं देहस्नेहम् = देह के प्रति आसक्ति सहज सुलभ बन्धन का कारण है। बन्ध हेतु एवं सहज सुलभ शब्द देहस्नेहं का विशेषण है। व्युदास्य-वि एवं उद् उपसर्गपूर्वक दिवादिगणीय 'असुक्षेपणे' धातु से बना है, जिसका अर्थ छोड़कर, अस्वीकार कर, परित्याग कर आदि है। भगवान् ने सहज रूप से सुलभ बन्धन का कारण देह के प्रति आसक्ति को सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर तपश्चर्या कर रहे थे। 'व्युदास्य' पद से देहासक्ति का पूर्णतया परित्याग संसूचित है। दीर्घ कालं - चक्रे - दीर्घ काल तक विविध विधि से अत्यन्त कठोर तपस्या करते हुए कुछ सुन्दर अभिग्रह को धारण किया! चारू अभिग्रहं चक्रे - चारू पद अभिग्रह का विशेषण है जो अभिग्रह की सुन्दरता एवं उत्कृष्टता को अभिव्यंजित करते हैं। जो हृदय को प्रिय लगे वह चारु है, या जो चित्त में सहजतया संचरण करने लगे वह चारू है। निरूक्तकार यास्क ने चारू का निर्वचन किया है-चारू चरते: (नि.8.15) अर्थात् जो हृदय में सहजतया चरण करने लगे, व्याप्त हो जाए उसे चारु कहते हैं । अमरकोश (3.1.52) में सुन्दर के 12 पर्यायों में से चारू को माना है-सुन्दरं रुचिरं चारु सुषमं साधु शोभनम्। कान्तं मनोरमं रूच्यं मनोज्ञं मंजु मंजुलम्। चारू शब्द भ्वादिगणीय 'चर गतौ' धातु से उणादिसूत्र 'दृसनिजनि'. (1.3) से जुण (उ) प्रत्यय करने पर बनता है। जो चित्त में रमण करने लगे, व्याप्त हो जाए उसे चारू कहते हैं । अभिग्रह के लिये चारू विशेषण का प्रयोग साभिप्राय है। अभिग्रह-अभि उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से अच् प्रत्यय करने से अभिग्रह शब्द निष्पन्न होता है जिसका सामान्य अर्थ है छिनना, ठगना, अधिकार, प्रभाव आदि । प्रस्तुत संदर्भ में विशिष्ट प्रयोग है। यहाँ पर अभिग्रह का अर्थ है वैसी प्रतिज्ञा जिसका ग्रहण संकल्पपूर्वक श्रद्धा और ज्ञान के साथ ग्रहण किया जाए। आवश्यक टीका (हरिभद्रीया) में निर्दिष्ट है-अभिगृह्यन्ते इति अभिग्रहाः अर्थात् जिनको संकल्पपूर्वक ग्रहण किया जाए वे प्रतिज्ञाएँ अभिग्रह हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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