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________________ अश्रुवीणा / ६९ दण्डापूपिकयापतनमर्थापत्तिः - अलंकार रत्नाकर 81 कैमुत्यन्यायतः सा स्यादर्थापत्तिरलंक्रिया प्रतापरूद्रीय 8.228 (७) निर्गन्थानामधिपतिरसौ पश्चिमस्तीर्थनाथोदेह-स्नेहं सहजसुलभं बन्धहे तुं व्युदास्य । दीर्घ कालं विविधविधिभिर्घोररूपं तपस्य न्नेकं कञ्चित् कुलिशकठिनोऽभिग्रहं चारु चक्रे॥ अन्वय-असौ निर्ग्रन्थानामधिपति:पश्चिमस्तीर्थनाथ: कुलिशकठिनः बन्धहेतुं सहजसुलभं देहस्नेहं व्युदास्य दीर्घकालं विविधविधिभिः घोररूपं तपस्यन् कञ्चित् चारू अभिग्रहं चक्रे। __ अनुवाद-वे निर्ग्रन्थों के अधिपति, अंतिम तीर्थंकर, वज्र के समान कठोर (भगवान् महावीर) बन्ध का कारण सहज सुलभ देहासक्ति का परित्याग कर दीर्घकाल तक विविध प्रकार से घोर तपस्या करते हुए एक अभीष्ट अभिग्रह को ग्रहण किया। व्याख्या-इस श्लोक में परिकर, पर्याय, उपमा, अनुप्रास, काव्यलिंग, विरोध, विभाविना, विशेषोक्ति, संकर, संसृष्टि आदि सहजोपस्थित अलंकारों के माध्यम से महाकवि महाप्रज्ञ ने भगवान् महावीर के उदात्त चरित्र का उपस्थापन किया है। असौ-वह निर्ग्रन्थानामधिपतिः- निर्ग्रन्थों के अधिपति।जो ग्रन्थि से, बन्धन से निकल चुका है वह निर्ग्रन्थ है। बन्धनविमुक्त। मोहरहित निर्ग्रन्थ है। जो बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के बन्धनों से रहित हो चुका है वह निर्ग्रन्थ है। सूत्रकृतांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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